Monday, December 13, 2010

श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार मंत्रिपरिषद का विधायक कोष को समाप्त करने के निर्णय को
डा॰ जगन्नाथ मिश्र ने साहसिक निर्णय बताया।
पटना, 11 दिसम्बर, 2010

देश के विकास को यदि कोई सबसे ज्यादा बाधित कर रहा है तो वह है भ्रष्टाचार। आज इससे पूरा देश त्रस्त है। लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने का कार्य काफी समय से इसके द्वारा हो रहा है। इस पृष्ठभूमि में बिहार मंत्रिपरिषद ने मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में विधायक कोष को समाप्त करने का निर्णय लिया है जो प्रशासन में भ्रष्टाचार एवं अनियमितता समाप्त करने की दिशा में एक साहसिक व ऐतिहासिक निर्णय कहा जा सकता है। यह निर्णय देश को एक संदेश देगा। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में गठित बेंकट चलैया आयोग ने एम॰पी॰ तथा एम॰एल॰ए॰ फंड को तत्काल बंद करने की सिफारिश की और उसने इसे अलोकतांत्रिक माना था। परंतु केन्द्र एवं राज्य स्तर पर किसी सरकार ने इस कोष को समाप्त करने का साहस नहीं जुटा पायी। बिहार में ही सर्व प्रथम 1980 में ऐसे कोष की शुरूआत हुई थी। आज बिहार ही उसकी समाप्ति का संदेश दे रहा है।
यह अत्यंत ही विस्मयकारी तथा दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने की लगातार कोशिश की जा रही है परंतु सभी प्रयास, भाषणों एवं कागजी कार्रवाई तक सीमित रही है। अब श्री नीतीश कुमार ने भ्रष्टाचार विरोध अभियान को सरजमीन पर व्यावहारिक रूप दिया है। बिहार सरकार ने भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए एंटी करप्शन एक्ट पारित किया है। इस एक्ट के तहत वह भ्रष्ट अधिकारियों की संपŸिा ट्रायल के दौरान जब्त कर सकती है। इस एक्ट के तहत बिहार सरकार आॅल इण्डिया सर्विस के अधिकारियों की संपŸिा भी जब्त कर सकती है। निचले स्तर पर भ्रष्टाचार रोकने के लिए सरकार राइट टू सर्विस एक्ट भी लागू करने वाली है। मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार के सेवा का अधिकार कानून बनाने की घोषणा सरकारी महकमों में कामकाज को सुचारू बनाने की दिशा में भरोसा जगाने वाला है। बिहार में सेवा का अधिकार लागू होने के बाद यहां के कर्मचारी अपनी जवाबदेही से बचने की कोशिश नहीं करेंगे, ऐसी आशा की जा सकती है। भ्रष्टाचार के कारण राज्य के गरीबों को बुनियादी सुविधाएं देने के लिए लगातार किये जा रहे व्यय का अधिकांश भाग बिचैलियों के बीच सीमटता गया है। ऐसी परिस्थिति में भ्रष्टाचार और विकास जैसी चुनौतियों के लिए भगीरथी प्रयास की आवश्यकता है। बिहार को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के साथ-साथ बिहार को विकसित राज्यों की श्रेणी में लाने में मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार की घोषणा अत्यंत ही सराहनीय है। उनकी ये घोषणा बड़ी एवं चुनौतियों से भरी है। उन्होंने अपनी दूसरी पारी की सरकार की ओर से कार्यालयों की कार्य संस्कृति बदलने एवं विकास की परिकल्पनाओं को आकार देने की चेष्टा की है। उससे ऐसी आशा बनती है कि उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति एवं ईमानदार कोशिश से भ्रष्टाचार से बिहार को मुक्त करने में वे सफल हो सकते हैं। अपनी पहली पारी की सरकार में ई-गवर्नेस के लिए दुनियां में उन्होंने ख्याति अर्जित की है। इसलिए यह आशा बनती है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में वे सफल हो सकते हैं। बिहार को विकसित राज्यों की श्रेणी में लाने के लिए सबसे जरूरी है कार्य संस्कृति में बदलाव तथा व्यवस्था को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना। ऐसा होने से बिहार में विकास की गति तेज होगी। भ्रष्टाचार पर कारगर ढंग से रोकथाम कर, जनविश्वास अर्जित करने तथा प्रशासनिक शिथिलता समाप्त करने के उद्देश्य से ‘‘बिहार विनिर्दिष्ट आचरण निवारण अधिनियम, 1983’’ को पूरे राज्य में तत्कालिक प्रभाव से दृढ़तापूर्वक लागू करने की डा॰ मिश्र ने मुख्यमंत्री से अपील की।
(विद्यानाथ झा)
निजी सचिव

Saturday, December 11, 2010

विधान सभा चुनाव नतीजा बिहार में विगत पांच वर्षों में आये आर्थिक एवं सामाजिक बदलाव की निरंतरता बनाये रखने के लिए मुख्यमंत्री श्री नीतीष कुमार के नेतृत्ववाली गठबंधन के उम्मीदवारों की अभूतपूर्व जीत के लिए- पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री, डा॰ जगन्नाथ मिश्र ने मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार एवं बिहार के मतदाताओं को बधाई दी।

विधान सभा चुनाव नतीजा बिहार में विगत पांच वर्षों में आये आर्थिक एवं सामाजिक बदलाव की निरंतरता बनाये रखने के लिए मुख्यमंत्री श्री नीतीष कुमार के नेतृत्ववाली गठबंधन के उम्मीदवारों की अभूतपूर्व जीत है। इस जीत से श्री नीतीश कुमार की राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रतिबद्ध विकास, धर्मनिरपेक्ष एवं सामाजिक समरसता के नेता के रूप में छवि बनी है। 2010 का विधान सभा चुनाव बिल्कुल अलग था। चुनावी फिजां में एक नयी लहर दौड़ रही थी। सुशासन की लहर, विकास की लहर। श्री नीतीश कुमार ने अन्य सभी पार्टियों को सुशासन के नारे के साथ ही चुनावी मैदान में जोर अजमाने के लिए विवश कर दिया। चुनाव में कमोबेश सबके नारे में विकास और सुशासन की ही गूंज थी। विधान सभा क्षेत्रों में संपन्न हुए चुनावों में महिलाओं की भागीदारी पूर्व के सभी चुनावों की अपेक्षा अधिक रही है। महिला मतदाताओं की ऐसी अवधारणा बनी है कि वर्तमान सरकार ने उन्हें राजनीतिक सहभागिता प्रदान की है। मुसलमानों में विशेषकर यह अवधारणा बनी कि भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन में सम्मिलित रहने के बावजूद श्री नीतीश कुमार की सरकार ने धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बनायी रखी है। निःसंदेह इस नये माहौल की शुरूआत श्री नीतीश कुमार ने की। नतीजा है कि आजादी के छह दशक बाद आज बिहार की राजनीति एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां आम आदमी से जुड़े मुद्दे प्राथमिकता में हैं। जाति और मजहब की दीवार अप्रासंगिक दिखायी देने लगी हैं। इन मुद्दों ने बिहार को इस कदर जकड़ रखा था कि ये राज्य की पहचान से जुड़ गये थे। चुनाव में न तो कहीं दबंगई चली और न ही जनता भावनाओं में गुमराह होती नजर आयी। राज्य में यह पहला चुनाव रहा, जिसमें मतदान के दौरान किसी को अपनी जान नहीं गंवानी पड़ी, न किसी उम्मीदवार, न किसी राजनीतिक कार्यकर्ता और न ही किसी मतदाता को। इस बार हिंसा के बिना चुनाव का संपन्न होना खुद बता रहा है कि राज्य में कानून-व्यवस्था की सूरत किस हद तक सुधरी है। यह श्री नीतीश कुमार सरकार की बड़ी उपलब्धि है। वर्षों से अधिक और सामाजिक रूप से हाशिए पर रहने वाली बिहारी जनता को इस चुनाव के दौरान अपने अधिकार का अहसास था। यह ऐसा मौका था, जिसमें बिहार के भविष्य का रास्ता चुनने का अधिकार आम बिहार को था। तभी तो राज्य के लोगों ने इस बार उत्साह के साथ अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इसी का नतीजा रहा कि इस बार पिछले विधान सभा चुनाव की तुलना में 7 फीसदी अधिक वोट पड़े। चुनाव के विभिन्न चरणों में मतदान का बढ़ा प्रतिशत इस बात का संकेत है कि लोगों के दिलों में बिहार के बारे में एक सपना है और यह सपना एक ऐसे बिहार का है जिसका परचम हर जगह लहराये। राज्य में सौहार्दता हो, जाति या धर्म के आधार पर समाज में विद्वेष न हो। 2005 से 2010 के बीच पांच वर्षों में बिहार ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण यात्रा तय की है। बिहार की वास्तविक प्रगति का यह शुभारंभ है। श्री नीतीष कुमार की सरकार में राज्य में आर्थिक नवजागरण लाने का हर संभव प्रयास हुआ है। राज्य के ढांचे के निर्माण एवं सुदृढ़ीकरण के अतिरिक्त राज्य में निवेषकों को आकर्षित करने की क्षमता बढ़ाने का भी प्रयास हुआ है। गत 5 वर्षों के दौरान किए गए प्रयासों के चलते बिहार असफल राज्य से क्रियाषील राज्य (फंग्सनल स्टेट) में बदला है।


विद्यानाथ झा
निजी सचिव

Friday, December 10, 2010

दिनांक 26 जुलाई, 2010 को ललित नारायण मिश्र आर्थिक विकास एवं सामाजिक परिवर्तन संस्थान, पटना के सभागार में संस्थान के एम॰बी॰ए॰ एम॰सी॰ए॰ 2010-12 पाठ्यक्रम सत्र के शुभारंभ के अवसर पर डा॰ जगन्नाथ मिश्र का सम्बोधन।
विगत वर्षों में हमारे देश में प्रबंधन षिक्षा का पर्याप्त विस्तार हुआ है। इन वर्षों में प्रबंधन षिक्षा के दु्रत विकास के क्रम में यदा-कदा गुणवत्ता और स्तरीयता की अल्पता उत्पन्न हुई जिस कारण से मानव संसाधन की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। गुणवत्ता, प्रभाव एवं प्रासंगिकता ऐसे महत्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिनके माध्यम से समाज प्रबंधन षिक्षा की कामयाबी को मापता है। यू॰जी॰सी॰ के द्वारा आयोजित एक सर्वेक्षण से यह प्रकाष में आया है कि लगभग सभी सूचकों पर यथा निकाय के स्तर, पुस्तकालयीय सुविधायें, संगणक (कम्प्यूटर) की उपलब्धता, शिक्षक-छात्र का अनुपात आदि- प्रबंधन षिक्षा को यथाषीघ्र समुन्नत करना अत्यावष्यक है। आज यह जबरदस्त भावना हो गयी है कि विश्वविद्यालयों और काॅलेजों से प्रबंधन स्नातकोत्तर उत्तीर्ण की कुषलता जाॅब मार्केट की अपेक्षाओं से मेल नहीं खाती हैं, ये प्राप्त षिक्षा (डिग्री) के अनुपात में कत्र्तव्य पर खरे नहीं उतरते हैं। एक ओर तो हम षिक्षित बेरोजगारों की इतनी बड़ी संख्या नहीं चाहते और दूसरी ओर हमारे पास जो कार्य (जाॅब) हैं उनके लिये अनुकूल उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हैं। हमारे जैसे विकासषील देष में नियोजन की दृष्टि से अयोग्य प्रबंधन स्नातक बेकारी की समस्या से भी बड़ी समस्या प्रस्तुत कर देते हैं। आज के स्पर्धा भरे वातावरण की मांग है प्रबंधन षिक्षा की उत्कृष्टतर गुणवत्ता/ राष्ट्रीय एवं विष्व-बाजार में केवल वे ही संस्थायें प्रतियोगिता में आने की स्थिति में होंगी जो निरंतर गुणवत्तापूर्ण षिक्षा प्रदान करें। यह कहा जाता है कि गुणवत्ता नागरिकों की गुणवत्ता पर आश्रित होती है। और, नागरिकों की गुणवत्ता उनकी षिक्षा पर निर्भर करती है। ये बातें प्रबंधन षिक्षा के मामले में खासतौर से सच्ची पायी जाती हैं। राष्ट्रीय एवं विष्व बाजार की प्रतियोगिता में सफल होने के लिये यह अनिवार्य है कि हमारी प्रबंधन उच्च षिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता का सम्वर्द्धन किया जाय।
प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता सम्बर्द्धित करने हेतु किसी विष्वविद्यालय एवं स्वायत्त संस्थानों को वृहत् धनराषि की जरूरत होती है। षैक्षिक और भौतिक आधारभूत संरचना यथा कक्षाओं और प्रयोगषालाओं, पुस्तक भंडार को अद्यतन करना, पुस्तकालय में पत्रिका, संदर्भ सामग्री और षिक्षकों-षिक्षकेतर कर्मचारियों के वेतन-भुगतान आदि की गुणवत्ता संवर्द्धित करने हेतु हमें धनराषि की जरूरत है। हमें धनराषि तबतक नहीं प्राप्त होगी जबतक हम विष्वविद्यालय, सरकार एवं अन्य श्रोतों द्वारा किये गये व्यय की उपयोगिता उच्च स्तरीय गुणवत्ता के परिणाम स्वरूप नहीं सिद्ध करते हैं। एक ऐसे तंत्र को विकसित करना ही है जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता को निरंतर आकलित और संधारित करता रहे।
प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता और प्रासंगिकता से संबंधित एक दूसरा मुद्दा है जो प्रबंधन षिक्षा की आंतरिक और वाह्य उत्पादकता के बारे में है। वे, जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता से मतलब रखते हैं अपने मानकों, यथा अंक, प्रकाषन आदि का उपयोग कर इस पर (गुणवत्ता पर) मात्र आंतरिक परिप्रेक्ष्य से देखते रहे हैं। किन्तु उद्योग और अन्य आर्थिक क्षेत्र (सेक्टर) जिन्हें अपनी उत्पादन प्रणाली में छात्रों की जरूरत है, लब्धांक या प्राप्त प्रतिभा प्रमाणपत्रों से अधिक हैं; ये मूलतः प्राप्त ज्ञान और कुषलता से मतलब रखते हैं। ये लक्षित परिणाम उत्पादित करने हेतु कुछ क्रियाकलापों के संपादन में छात्रों को लगाना चाहते हैं। ये अपने व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य से, न कि छात्रों के षैक्षिक ज्ञान के आधार पर, गुणवत्ता को परखते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता दो भिन्न मार्गों से समझी जाती हैः-(1) संस्था के आंतरिक परिप्रेक्ष्य से और (2) उस बाजार के वाह्य परिप्रेक्ष्य से, जिसमें ये स्नातक/स्नातकोत्तर नियोजित किये जा सकेंगे। वे संस्थायें जो गुणवत्ता का आकलन अपने-अपने आंतरिक कार्य संचालन के आधार पर करती हैं, उद्योगजगत् द्वारा वांछित गुणवत्तापरक अर्हताओं को पूर्ण नहीं करती हैं। संस्थानों कालेजों और विष्वविद्यालयों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने हेतु प्रयुक्त षत्र्तों में ये बिन्दु सम्मिलित हैं- (अ) पाठ्यक्रम पहलू (आ) अध्यापन, सीखना और मूल्यांकन (इ) षोध, परामर्ष और प्रसार (ई) आधारभूत संरचना (उ) छात्र-साहाय्य (ऊ) संगठन और प्रबंधन (ए) स्वास्थ क्रियाकलाप। उपर्युक्त षर्तों का प्रयोग संस्थाओं की गुणवत्ता के आकलन में किया जाता है। दूसरी ओर उद्योगजगत् की अभिरूचि ऊपर वर्णित उस व्यक्ति में है, जो व्यक्ति वस्तुयें उत्पादित कर सकता है। इसलिये षिक्षा की गुणवत्ता या षिक्षा के मानक जो छात्रों से अपेक्षित हैं वे उद्योगतजगत् के अपने दायरे में हैं। अस्तु, ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वृहत्तर विचारण एवं चर्चा आवष्यक हैं। षिक्षा एवं प्रबंधन षिक्षा को बुनियादी जरूरत माना जाता है। भारत की आजादी के बाद यहां की हर सरकार घोषित रूप से ही सही षिक्षा के प्रसार की दिषा में कई योजनाएं बनाती रही है। हालांकि इस बात पर हमेषा सवाल उठता रहा है कि इन योजनाओं के अमल में कितनी ईमानदारी बरती जाती है। लेकिन इस बात को स्वीकार करने में किसी को कोई एतराज नहीं होनी चाहिए कि प्रबंधन षिक्षा का प्रसार हुआ है। पर अपेक्षित और आवष्यक प्रसार प्रबंधन षिक्षा के क्षेत्र में नहीं हो पाया है। इस अवसर पर यह कहना बड़ा ही समीचीन होगा कि एक दृष्टिकोण है कि प्रबंधन षिक्षा संख्या की दृष्टि से गुणवत्ता की कीमत पर बहुत विस्तृत हुई है और प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता क्रमषः अधोगति प्राप्त करती रही है। लोग अभी भी महसूस करते हैं कि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देष में षिक्षा तक पहुँच या इसका अधिकाधिक विस्तार अभी भी एक प्राथमिकता है। षिक्षा में षिक्षक उन चुनौतियों को देखते हैं जो इस अंतद्र्वन्द्व से उत्पन्न हुई हैं। किसी भी राष्ट्र के लिए यह हितकर नहीं होगा कि प्रबंधन षिक्षा के विस्तार को उपेक्षित किया जाय। लेकिन तकनीकी विकास के इस युग में गुणवत्ताविहीन प्रबंधन षिक्षा मजाक बनकर रह जाती है। सबों के लिए गुणवत्तापरक षिक्षा राष्ट्र के समक्ष एक साहसिक कार्यभार है। संविधान के प्राक्कथन में और मौलिक अधिकारों से संबद्ध भाग में ही अंकित है कि समानतापूर्वक जीने का अधिकार और सामाजिक न्याय के साथ जीने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है। यह अधिकार इस अधिकार की पूरी गारंटी है और इसका उच्च से उच्च अर्थ है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इस आधिकार की आधिकारिक व्याख्या की गई है; जिसका अर्थ है-सम्मान और समानतापूर्ण जीवन स्तर और अवसर जो जीने के अधिकार से संबंधित है। इस व्याख्या में यह भी अंकित है कि षिक्षा मानवीय सम्मान का अति महत्वपूर्ण अंग है और इसलिए षिक्षा संविधान के मौलिक अधिकार में सन्निहित है। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो॰ अमत्र्य सेन ने षिक्षा को विकसित करने के लिए प्रत्येक स्तर पर सर्वांगीण गुणवत्ता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि षिक्षा से ही किसी राष्ट्र का वास्तविक विकास संभव हो पाता है क्योंकि विषिष्ट षिक्षा से ही किसी राष्ट्र को अच्छे इंजीनियर, प्रबंधक, डाक्टर, व्यवसायी, अधिवक्ता, लेखा विषेषज्ञ, आचार्य (प्रोफेसर) तथा सभी क्षेत्रों से संबंधित कुषल तकनीकी कर्मियों की उपलब्धता सुनिष्चित की जा सकती है। अतः निष्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि विषिष्ट षिक्षा को विकसित करने में व्यय धनराषि अनुत्पादक निवेष नहीं है बल्कि दीर्घकालिक रूप में एक उत्पादक निवेष है। कहने की जरूरत नहीं कि षिक्षा के प्रति नयी जागरूकता के बावजूद काम अभी बाकी है। तमाम अभियानों-कार्यक्रमों के बावजूद आज भी देष में लगभग 36 करोड़ लोग षिक्षा से वंचित हैं। राष्ट्रीय षिक्षा नीति 1986 में षिक्षा के मद में सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिषत आवंटन की जरूरत रेखांकित की गयी थी पर यह आजतक नहीं हो सका। 1990 के दषक के दौरान प्रारंभिक षिक्षा पर चालू सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 1.69 से घटकर 1.47 प्रतिषत पर प्रारंभिक षिक्षा को प्राथमिकता देना षोर के बीच ही पहुँच गया। इक्कीसवीं सदी के विष्व में बुनियादी परिवर्तन हो रहा है। इसमें पूंजी, षक्ति तथा वर्चस्व की परिभाषा बदल रही है। आज का समाज ‘ज्ञान का समाज’ है। स्वभावतः बाजार भी ‘ज्ञान का बाजार’ है। आज मानव जाति षिक्षा को एक अपरिहार्य संपदा के रूप में देख रही है। षिक्षा व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास की मूलभूत भूमिका में सामने आ रही है। किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र की षक्ति का निर्धारण उसके ज्ञान की पूंजी के आधार पर होगा। ‘ज्ञान और सूचना’ विष्व की सर्वोत्तम पूंजी बनने वाली है। नई सदी में विष्व के राष्ट्रों ने अपनी कार्य-योजना पर काम करना षुरू कर दिया है। कई विकसित राष्ट्रों ने मानव संसाधन के विकास की अपनी योजना, संसाधन और आवष्यकता की समीक्षा की है। मानव संसाधन की आवष्यकता के परिप्रेक्ष्य में कई राष्ट्रों में पहले से ही काम चल रहे हैं। सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा लोग प्रबंधन एवं तकनीकी षिक्षा हासिल करें। इससे उनके लिए देष में ही नहीं विदेषों में भी रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक अध्ययन के अनुसार 14 करोड़ बच्चे प्राथमिक षिक्षा में प्रवेष लेते हैं। पांचवीं पास करते-करते इनमें से 50-55 फीसदी बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। यों करीब 7 करोड़ बच्चे मिडिल स्कूलों में पहुँचते हैं। लेकिन आठवीं पास करते-करते 60 फीसदी बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं। नौंवीं एवं दसवीं कक्षाओं में स्कूल प्रवेष दर (जीईआर) 40 फीसदी ही है। जबकि 14-18 साल के उम्र वर्ग में अभी करीब 9.70 करोड़ बच्चे हैं। मतलब यह हुआ कि इनमें से साढ़े तीन करोउ़ बच्चे ही नौंवी में प्रवेष ले पाते हैं। दसवीं पास करने के बाद 11वीं यानी उच्चतर माध्यमिक में प्रवेष की दर और भी कम महज 28 फीसदी है। अनुमान है कि करीब 2.5 करोड़ बच्चे ही उच्चतर माध्यमिक की पढ़ाई करते हैं। इन छात्रों को यदि विज्ञान, कामर्स, आट्र्स और अन्य विषयों की पढ़ाई के हिसाब से विभाजित कर दें तो साइंस पढ़ने वाले बच्चों की संख्या 70-75 लाख के करीब बैठती है। दूसरी तरफ सरकार का लक्ष्य अगले पांच सालों में 1.20 करोड़ छात्रों को प्रतिवर्ष तकनीकी प्रबंधन और वोकेषनल षिक्षा देने का है। अभीतक तो स्थिति यह है कि इन 25 लाख तकनीकी सीटों में भी इंजीनियरिंग, प्रबंधन, डेंटल, नर्सिंंग आदि में 10-20 फीसदी सीटें प्रतिवर्ष खाली रह जाती हैं। इसका कारण है कि स्टूडेंट नहीं मिल पाते हैं। ऐसे में सरकार के लिए चुनौती है कि सीटें बढ़ाने के साथ-साथ एडमिषन के लिए छात्रों की संख्या में भी इजाफा किया जाए। ज्यादा से ज्यादा लोग तकनीकी कोर्स करें, इसके लिए स्टूडेंट को तो आकर्षित किया ही जा रहा है, लेकिन बहुत सारे लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी पारिवारिक जरूरतों के चलते कम उम्र में काम धंधे में लग जाते हैं। या पहले कोई दूसरा कोर्स कर चुके होते हैं, लेकिन जब वे प्रबंधन, डाक्टरी या इंजीनियरिंग पढ़ना चाहते हैं तो उनकी उम्र निकल चुकी होती है। अब तकनीकी कोर्स करने के लिए सरकार अधिकतम आयु सीमा के प्रावधान को भी खत्म करने जा रही है। यानी किसी भी उम्र में इंजीनियरिंग और डाक्टरी की पढ़ाई की जा सकेगी। अभी प्रबंधन और कानून की पढ़ाई के लिए अधिकतम उम्र की कोई सीमा तय नहीं है। बाकी सभी कोर्स के लिए अधिकतम उम्र सीमा निर्धारित है। पेषेवर कोर्स की सीटें 25 लाख से बढ़ाकर 1.20 करोड़ करने के लिए व्यापक बुनियादी ढांचे की भी जरूरत पड़ेगी। सरकार की तरफ से आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम, एम्स आदि खोले जा रहे हैं। इसके बावजूद भी कमी बरकरार रहेगी। प्रबंधन षिक्षा की बेहतर व्यवस्था के जरिये रोजगार क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए प्रचूर संभावनाएं हैं। प्रबंधन एवं तकनीकी षिक्षा तंत्र में ज्यादा स्वायत्तता, स्वतंत्रता और लचीलेपन की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षा सृजनात्मक, उपयोगी, असरदार और प्रासंगिक होनी चाहिए। वास्तव में, हमें जिन इंजीनियरों, प्रबंधक एवं तकनीकी प्रषिक्षित लोगों की दरकार है वह नयी विधाओं में है और हम अपनी आवष्यकतानुसार इंजीनियर, प्रबंधक एवं तकनीकी प्रषिक्षित लोग तैयार नहीं कर पा रहे हैं। चूंकि राज्य में समुचित सुविधाएं और संस्थाएं पर्याप्त नहीं हैं, इसलिये बड़ी संख्या में प्रखर बुद्धि युवा विभिन्न विधाओं, विषेषकर सूचना प्रौद्योगिकी में, इंजीनियरी एवं प्रबंधन षिक्षा राज्य के बाहर में प्राप्त करते हैं। वे प्रमुखतः बंगलौर, हैदराबाद, पुणे और चेन्नई जाते हैं और अधिकतकर वापस न लौटकर अन्यत्र रोजगार ढूंढ़ लेते हैं। जहांतक प्रबंधन एवं सूचना प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में निजी संस्थानों की बहुतायत की बात है, आवष्यक है कि उनके ऊपर पाठ्यक्रम स्तर और श्रेणीकरण पर सामान्य नियंत्रण हो। ऐसे नियंत्रण की प्रकृति के निर्धारण के लिये विषेष अध्ययन और उसके षीघ्र क्रियान्वयन की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षा को रोजगारोन्मुख और रोजगारपरक बनाए जाने की जरूरत है। षिक्षा को ज्यादा उपयोगी कौषल से युक्त और साथ ही साथ रोजगार के अवसर बढ़ाने वाली षिक्षा बनाने के लिये रणनीति अपनाए जाने की जरूरत है। षिक्षण प्रणाली में उद्यमषीलता के महत्व और काॅलेज षिक्षा के स्तर से ही छात्रों को उद्यमों की स्थापना के प्रति उन्मुख करने पर जोर दिया जाना चाहिए जिससे उन्हें धन अर्जित करने के लिये क्रियाषीलता, स्वतंत्रता और सामथ्र्य प्राप्त हो।
(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)
दिनांक 27 जुलाई, 2010 को नेचुरल हेल्थ मिषन के तत्वावधान में इंडियन मेडिकल एसोसियेषन हाॅल में प्रथम नेषनल मेगा हेल्थ सेमिनार में डा॰ जगन्नाथ मिश्र का सम्बोधन।
दुनिया भर में स्वस्थ जीवन, सुदीर्घ आयु और इनके लिए जरूरी स्वास्थ्य एवं पोषण सुविधाओं की उपलब्धता को विकास का मापदंड माना गया है। वस्तुतः किसी भी देष-समाज के समग्र आर्थिक क्रियाकलापों की नाभि उसमें रहने वाले मनुष्य की षारीरिक और मानसिक बेहतरी होती है। यह बेहतरी न केवल व्यक्तियों को निजी उपलब्धियां दिलाने का माध्यम बनती है, बल्कि वह देष-समाज को भी नई ऊंचाईयां और उपलब्धियां प्रदान करती है। लेकिन यह तभी संभव है जब उस देष में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाएं विष्वसनीय और सहज-सुलभ हों। अतः किसी भी आधुनिक देष की सरकार के लिए अपने नागरिकों को स्तरीय, प्रामाणिक, विष्वसनीय और सर्वसुलभ स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना प्राथमिक जिम्मेदारी बन जाती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही स्वास्थ्य को सामाजिक-आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण घटक मानते हुए बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के प्रयास किए गए हैं।
रोटी, कपड़ा और मकान के बाद मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण आवष्यकता अच्छे स्वास्थ्य की होती है। इसीलिए कहा गया है, ‘‘स्वस्थ षरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है।’’ इस कथन से जीवन में स्वास्थ्य की भूमिका स्वयं प्रमाणित होती है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या, गरीबी, असमानता, भौगोलिक दूरी, प्राकृतिक विविधता, षैक्षिक पिछड़ापन, अंधविष्वासों की जकड़न जैसी विपरीत परिस्थितियों में सभी को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। आजादी के बाद से ही भारत सरकार इस चुनौती पर काबू पाने का प्रयास कर रही है। पिछले छह दषकों में देष ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय उपलब्यिाँ हासिल की हैं जैसे औसत आयु में दुगुनी वृद्धि, माता एवं षिषु मृत्यु दर में कमी, कई गंभीर बीमारियों का खात्मा। इस दौरान सरकारी और निजी स्वास्थ्य सेवाओं का देषव्यापी विस्तार हुआ। असाध्य रोगों के लिए अनुसंधान केन्द्र स्थापित किए गए। निवारक टीकों का विकास किया गया और देषव्यापी टीकाकरण अभियान चले। इन उपलब्धियों के बाद भी देष स्वास्थ्य रक्षा के क्षेत्र में अभी बहुत पीछे है। विकसित देषों की बात तो दूर भारत विकासषील देषों में भी पिछली पंक्ति में नजर आता है। पिछले एक दषक में बढ़ती जनसंख्या व बीमारियों के अनुपात में स्वास्थ्य सुविधाएं घटी हैं। इस दौरान बेड घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पतालों में बेड की उपलब्धता) 7 प्रतिषत कम हो गया। देष के छह राज्यों (मध्य प्रदेष, उड़ीसा, उत्तर प्रदेष, बिहार, जम्मू व कष्मीर, हरियाणा) में बेड की उपलब्धता राष्ट्रीय औसत (0.86 बेड प्रति हजार) का दो-तिहाई है। चार दक्षिणी राज्यों (कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेष) में देष की 20 प्रतिषत जनसंख्या निवास करती है लेकिन यहाँ देष के एक-तिहाई डाक्टर व 40प्रतिषत नर्सें हैं। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेन्द्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में स्वास्थ्यगत आधारभूत ढांचे की भारी कमी है। इन केन्द्रों में 62 प्रतिषत विषेषज्ञ चिकित्सकों, 49 प्रतिषत प्रयोगषाला सहायकों ओर 20 प्रतिषत फार्मासिस्टों की कमी है। यह कमी दो कारणों से है- पहला, आवष्यकता की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं। दूसरा, बेहतर कार्यदषा की कमी और सीमित अवसरों के कारण योग्य चिकित्सक ग्रामीण क्षेत्रों में जाने के प्रति अनिच्छुक रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्यगत सुविधाओं की कमी का एक बड़ा कारण बिजली, सड़क, परिवहन के साधनों की कमी है। बेहतर स्वास्थ्य सुविधा की पहुँच बनाने के उद्देष्य से 1983 की स्वास्थ्य नीति में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की नीति अपनाई गई। इसका परिणाम यह हुआ कि निजी क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ। आज देष में 15 लाख स्वास्थ्य सुविधा प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख प्रदाता निजी क्षेत्र से संबंधित है। ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों में दवाई, प्रषिक्षित कर्मचारियों, जाँच सुविधाओं और उचित प्रबंधन का भारी अभाव है। देष की मात्र 12 प्रतिषत जनसंख्या स्वास्थ्य बीमा सुविधा लेती है। यद्यपि निजी स्वास्थ्य बीमा सेवा 40 प्रतिषत वार्षिक की गति से बढ़ रही है फिर भी जागरूकता की कमी, ऊँची प्रीमियम दर जैसे कारणों से देष की विषाल जनसंख्या इन सुविधाओं का लाभ नहीं ले पाती। किसी रोगी को अस्पताल में दाखिल करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में औसतन 19 किलो मीटर की दूरी तय करनी पड़ती है, जबकि षहरी क्षेत्रों में 6 किलो मीटर। सामान्य बीमारियों के इलाज के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में 5.9 किलो मीटर तथा षहरी क्षेत्रों में 2.2 किलो मीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। देष की 72 प्रतिषत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाएं दयनीय दषा में हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में झोलाछाप डाक्टर अपनी-अपनी दुकान सजाकर बैठे हैं तथा ग्रामीणों को लूट रहे हैं। कई बार ये अर्थ का अनर्थ कर देते हैं जिससे रोगी मौत के मुंह में चले जाते हैं। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की संरचना तो विद्यमान है लेकिन आवष्यक सुविधाएं (डाक्टर, नर्स, जाँच मषीनें) नदारद हैं।
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन की षुरूआत 12 अप्रैल, 2005 को की गई। इसका उद्देष्य दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों तक सस्ती, सुगम और उच्च गुणवत्ता युक्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराना है। इस मिषन के तहत प्रतिकूल स्वास्थ्य सुविधाएं संतोषजनक नहीं हैं, उनपर विषेष ध्यान दिया जाना आवष्यक है। मिषन का उद्देष्य समुदाय के स्वामित्व के अधीन पूर्णतया कार्यषील विकेन्द्रित स्वास्थ्य प्रणाली की स्थापना की जाए ताकि ग्रामीण सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के उपयोग के वर्तमान अनुपात को 20 प्रतिषत से बढ़ाकर 75 प्रतिषत किया जा सके। इसमें स्वास्थ्य रक्षा के लिए सहायक गतिविधियों पर भी ध्यान दिया जाए। जैसे पानी, षिक्षा, पोषण, सामाजिक और लिंग समानता। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का 2-3 प्रतिषत खर्च किया जाए जो फिलहाल 0.9 प्रतिषत है। इस क्षेत्र में केन्द्र सरकार अपना बजट बढ़ा रही है लेकिन राज्य सरकार को भी अपने-अपने स्वास्थ्य बजट में प्रतिवर्ष कम से कम 10 प्रतिषत वृद्धि करनी चाहिए। वर्तमान समय में स्वास्थ्य के क्षेत्र में केन्द्र और राज्य सरकारों के खर्च का अनुपात 80ः20 है। आवष्यकता यह है कि राज्यों के स्वास्थ्य विभाग इस मिषन का निर्बाध रूप से चलाने के लिए धन के प्रवाह को बढ़ायें। वर्तमान समय में राज्य को विŸाीय कमी है, इसलिए धन का आवंटन समय पर नहीं हो पा रहा है। इस मिषन के प्रभावी क्रियान्वयन में विŸा का अभाव बाधा है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन में आयुष (अर्थात् आयुर्वेद, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध तथा होम्योपैथी) को चिकित्सा प्रणाली की मुख्यधारा में लाया जाए। ये सुविधाएं न केवल सहज सुलभ व सस्ती हैं अपितु छोटी-मोटी बीमारियों में अचूक लाभ दे सकती है। आयुष विभाग एक ऐसी कार्यनीति चलावे जिसमें स्वास्थ्य उपकेन्द्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर आयुष का भरपूर इस्तेमाल किया जा सके। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधा विस्तार एवं सुदृढ़ीकरण के उपयुक्त प्रयासों के बाद भी गाँव और षहर के बीच की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है। इसका कारण है कि भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च विष्व में सबसे कम है जबकि निजी खर्च के मामले में भारत विष्व का अग्रणी देष है। निजी खर्च नगरों एवं महानगरों तक सीमित है। उदारीकरण के बाद से स्वास्थ्य पर निजी खर्च में तेजी से वृद्धि हुई है। पिछले एक दषक में स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च में निजी क्षेत्र की भागीदारी 60 प्रतिषत से बढ़ कर 80 प्रतिषत हो गई है। इससे गाँव और षहर के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। निजी क्षेत्र के तीव्र प्रसार के पीछे जहाँ सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधाओं व प्रबंधन की कमी है वहीं लोगों की मानसिकता भी दोषी है। दरअसल, लोगों में यह धारणा गहरे पैठ गई है कि अच्छा इलाज सिर्फ निजी अस्पतालों में ही हो सकता है। इसी सोच का लाभ निजी स्वास्थ्य क्षेत्र उठा रहा है। परंपरागत बीमारियों के साथ-साथ संक्रामक बीमारियों के फैलाव और बुजुर्गों की स्वास्थ्य रक्षा ने भारतीय चिकित्सा क्षेत्र के समक्ष नई चुनौतियों को प्रस्तुत किया है। संक्रामक बीमारियों का फैलता जाल भारत के लिए एक बड़ी आर्थिक एवं मानव संसाधन संबंधी हानि हो सकता है। असमानता, गरीबी, स्वास्थ्य सुविधाओं तक सीमित पहुँच के कारण नई-पुरानी बीमारियाँ ग्रामीणों के जीवन को दुष्कर बना रही हैं। इन परिस्थितियों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में गाँव व षहर के बीच की बढ़ती खाई निष्चित रूप से चिंता का विषय है। इस खाई को सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को सुदृढ़ बनाकर ही पाटा जा सकता है। किन्तु कतिपय आधारभूत समस्याएं अब भी यथावत हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल, परिवहन तथा संचार साधनों की कमी, चिकित्सकों एवं स्वास्थ्य कार्मिकों का ग्रामीण क्षेत्रों में कम ठहराव, प्रोन्नति की क्षीण संभावना एवं विŸाीय संसाधनों की कमी इत्यादी समस्याएं ग्रामीण स्वास्थ्य एवं विकास को व्यापक रूप से प्रभावित करती हैं। निर्धनता तथा सामाजिक पिछड़ापन जटिल समस्याएं हैं। सम्पूर्ण विकास से संबंधित सभी क्षेत्रों की कल्याणकारी विकास योजनाओं का एकीकरण कर दिया जाए तो सामाजिक-आर्थिक विकास का लक्ष्य बेहतर ढंग से तथा षीघ्र प्राप्त किए जा सकेंगे। इसके लिए जहाँ एक ओर केन्द्र व राज्य सरकारों को समन्वित ढंग से प्रयास करने होंगे वहीं जनसामान्य के लिए जरूरी हो गया है कि हम अपनी जीवनषैली में सुधार लायें। नियमित व्यायाम और संतुलित खान-पान को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनायें। अपने आसपास के वातावरण को साफ-सुथरा रखें। दूषित भोजन खाने से बचें। यही नहीं, हमें अपनी प्राचीन अमूल्य धरोहरों के महत्व को भी नए सिरे से समझना होगा। लेकिन वास्तविकता यही है कि आज के भौतिकवादी युग में हर आदमी केवल एक-दूसरे से आगे निकलने और पैसा कमाने की होड़ में जुटा है और ऐसा वह अपने स्वास्थ्य की कीमत पर करने से भी नहीं चुक रहा। षहरों में भौतिकवाद लोगों के स्वास्थ्य को निगल रहा है तो गाँवों में निरक्षरता, गरीबी और अंधविष्वास के पसरे पाँवों के कारण आम ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पा रहा।
(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)
दिनांक 04 अगस्त, 2010 को ललित नारायण मिश्र काॅलेज आॅफ बिजनेस मैनेजमेंट, मुजफ्फरपुर के सभागार में काॅलेज के एम॰बी॰ए॰ एम॰सी॰ए॰ 2010-12 पाठ्यक्रम सत्र के शुभारंभ के अवसर पर
डा॰ जगन्नाथ मिश्र का सम्बोधन।

विगत वर्षों में हमारे देश में प्रबंधन षिक्षा का पर्याप्त विस्तार हुआ है। इन वर्षों में प्रबंधन षिक्षा के दु्रत विकास के क्रम में यदा-कदा गुणवत्ता और स्तरीयता की अल्पता उत्पन्न हुई जिस कारण से मानव संसाधन की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। गुणवत्ता, प्रभाव एवं प्रासंगिकता ऐसे महत्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिनके माध्यम से समाज प्रबंधन शिक्षा की कामयाबी को मापता है। यू॰जी॰सी॰ के द्वारा आयोजित एक सर्वेक्षण से यह प्रकाष में आया है कि लगभग सभी सूचकों पर यथा निकाय के स्तर, पुस्तकालयीय सुविधायें, संगणक (कम्प्यूटर) की उपलब्धता, षिक्षक-छात्र का अनुपात आदि- प्रबंधन षिक्षा को यथाषीघ्र समुन्नत करना अत्यावष्यक है। आज यह जबरदस्त भावना हो गयी है कि विष्वविद्यालयों और काॅलेजों से प्रबंधन स्नातकोत्तर उत्तीर्ण की कुषलता जाॅब मार्केट की अपेक्षाओं से मेल नहीं खाती हैं, ये प्राप्त षिक्षा (डिग्री) के अनुपात में कत्र्तव्य पर खरे नहीं उतरते हैं। एक ओर तो हम षिक्षित बेरोजगारों की इतनी बड़ी संख्या नहीं चाहते और दूसरी ओर हमारे पास जो कार्य (जाॅब) हैं उनके लिये अनुकूल उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हैं। हमारे जैसे विकासषील देष में नियोजन की दृष्टि से अयोग्य प्रबंधन स्नातक बेकारी की समस्या से भी बड़ी समस्या प्रस्तुत कर देते हैं। आज के स्पर्धा भरे वातावरण की मांग है प्रबंधन षिक्षा की उत्कृष्टतर गुणवत्ता/ राष्ट्रीय एवं विष्व-बाजार में केवल वे ही संस्थायें प्रतियोगिता में आने की स्थिति में होंगी जो निरंतर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करें। यह कहा जाता है कि गुणवत्ता नागरिकों की गुणवत्ता पर आश्रित होती है। और, नागरिकों की गुणवत्ता उनकी षिक्षा पर निर्भर करती है। ये बातें प्रबंधन षिक्षा के मामले में खासतौर से सच्ची पायी जाती हैं। राष्ट्रीय एवं विष्व बाजार की प्रतियोगिता में सफल होने के लिये यह अनिवार्य है कि हमारी प्रबंधन उच्च षिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता का सम्वर्द्धन किया जाय। प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता सम्बर्द्धित करने हेतु किसी विष्वविद्यालय एवं स्वायत्त संस्थानों को वृहत् धनराषि की जरूरत होती है। षैक्षिक और भौतिक आधारभूत संरचना यथा कक्षाओं और प्रयोगषालाओं, पुस्तक भंडार को अद्यतन करना, पुस्तकालय में पत्रिका, संदर्भ सामग्री और षिक्षकों-षिक्षकेतर कर्मचारियों के वेतन-भुगतान आदि की गुणवत्ता संवर्द्धित करने हेतु हमें धनराषि की जरूरत है। हमें धनराषि तबतक नहीं प्राप्त होगी जबतक हम विश्वविद्यालय, सरकार एवं अन्य श्रोतों द्वारा किये गये व्यय की उपयोगिता उच्च स्तरीय गुणवत्ता के परिणाम स्वरूप नहीं सिद्ध करते हैं। एक ऐसे तंत्र को विकसित करना ही है जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता को निरंतर आकलित और संधारित करता रहे। प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता और प्रासंगिकता से संबंधित एक दूसरा मुद्दा है जो प्रबंधन षिक्षा की आंतरिक और वाह्य उत्पादकता के बारे में है। वे, जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता से मतलब रखते हैं अपने मानकों, यथा अंक, प्रकाषन आदि का उपयोग कर इस पर (गुणवत्ता पर) मात्र आंतरिक परिप्रेक्ष्य से देखते रहे हैं। किन्तु उद्योग और अन्य आर्थिक क्षेत्र (सेक्टर) जिन्हें अपनी उत्पादन प्रणाली में छात्रों की जरूरत है, लब्धांक या प्राप्त प्रतिभा प्रमाणपत्रों से अधिक हैं; ये मूलतः प्राप्त ज्ञान और कुषलता से मतलब रखते हैं। ये लक्षित परिणाम उत्पादित करने हेतु कुछ क्रियाकलापों के संपादन में छात्रों को लगाना चाहते हैं। ये अपने व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य से, न कि छात्रों के षैक्षिक ज्ञान के आधार पर, गुणवत्ता को परखते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता दो भिन्न मार्गों से समझी जाती हैः-(1) संस्था के आंतरिक परिप्रेक्ष्य से और (2) उस बाजार के वाह्य परिप्रेक्ष्य से, जिसमें ये स्नातक/स्नातकोत्तर नियोजित किये जा सकेंगे। वे संस्थायें जो गुणवत्ता का आकलन अपने-अपने आंतरिक कार्य संचालन के आधार पर करती हैं, उद्योगजगत् द्वारा वांछित गुणवत्तापरक अर्हताओं को पूर्ण नहीं करती हैं। संस्थानों कालेजों और विष्वविद्यालयों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने हेतु प्रयुक्त षत्र्तों में ये बिन्दु सम्मिलित हैं- (अ) पाठ्यक्रम पहलू (आ) अध्यापन, सीखना और मूल्यांकन (इ) षोध, परामर्ष और प्रसार (ई) आधारभूत संरचना (उ) छात्र-साहाय्य (ऊ) संगठन और प्रबंधन (ए) स्वास्थ क्रियाकलाप। उपर्युक्त षर्तों का प्रयोग संस्थाओं की गुणवत्ता के आकलन में किया जाता है। दूसरी ओर उद्योगजगत् की अभिरूचि ऊपर वर्णित उस व्यक्ति में है, जो व्यक्ति वस्तुयें उत्पादित कर सकता है। इसलिये षिक्षा की गुणवत्ता या षिक्षा के मानक जो छात्रों से अपेक्षित हैं वे उद्योगतजगत् के अपने दायरे में हैं। अस्तु, ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वृहत्तर विचारण एवं चर्चा आवष्यक हैं। षिक्षा एवं प्रबंधन षिक्षा को बुनियादी जरूरत माना जाता है। भारत की आजादी के बाद यहां की हर सरकार घोषित रूप से ही सही षिक्षा के प्रसार की दिषा में कई योजनाएं बनाती रही है। हालांकि इस बात पर हमेषा सवाल उठता रहा है कि इन योजनाओं के अमल में कितनी ईमानदारी बरती जाती है। लेकिन इस बात को स्वीकार करने में किसी को कोई एतराज नहीं होनी चाहिए कि प्रबंधन षिक्षा का प्रसार हुआ है। पर अपेक्षित और आवष्यक प्रसार प्रबंधन षिक्षा के क्षेत्र में नहीं हो पाया है। इस अवसर पर यह कहना बड़ा ही समीचीन होगा कि एक दृष्टिकोण है कि प्रबंधन षिक्षा संख्या की दृष्टि से गुणवत्ता की कीमत पर बहुत विस्तृत हुई है और प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता क्रमषः अधोगति प्राप्त करती रही है। लोग अभी भी महसूस करते हैं कि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देष में षिक्षा तक पहुँच या इसका अधिकाधिक विस्तार अभी भी एक प्राथमिकता है। षिक्षा में षिक्षक उन चुनौतियों को देखते हैं जो इस अंतद्र्वन्द्व से उत्पन्न हुई हैं। किसी भी राष्ट्र के लिए यह हितकर नहीं होगा कि प्रबंधन षिक्षा के विस्तार को उपेक्षित किया जाय। लेकिन तकनीकी विकास के इस युग में गुणवत्ताविहीन प्रबंधन षिक्षा मजाक बनकर रह जाती है। सबों के लिए गुणवत्तापरक षिक्षा राष्ट्र के समक्ष एक साहसिक कार्यभार है। संविधान के प्राक्कथन में और मौलिक अधिकारों से संबद्ध भाग में ही अंकित है कि समानतापूर्वक जीने का अधिकार और सामाजिक न्याय के साथ जीने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है। यह अधिकार इस अधिकार की पूरी गारंटी है और इसका उच्च से उच्च अर्थ है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इस आधिकार की आधिकारिक व्याख्या की गई है; जिसका अर्थ है-सम्मान और समानतापूर्ण जीवन स्तर और अवसर जो जीने के अधिकार से संबंधित है। इस व्याख्या में यह भी अंकित है कि षिक्षा मानवीय सम्मान का अति महत्वपूर्ण अंग है और इसलिए षिक्षा संविधान के मौलिक अधिकार में सन्निहित है। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो॰ अमत्र्य सेन ने षिक्षा को विकसित करने के लिए प्रत्येक स्तर पर सर्वांगीण गुणवत्ता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि षिक्षा से ही किसी राष्ट्र का वास्तविक विकास संभव हो पाता है क्योंकि विषिष्ट षिक्षा से ही किसी राष्ट्र को अच्छे इंजीनियर, प्रबंधक, डाक्टर, व्यवसायी, अधिवक्ता, लेखा विषेषज्ञ, आचार्य (प्रोफेसर) तथा सभी क्षेत्रों से संबंधित कुषल तकनीकी कर्मियों की उपलब्धता सुनिष्चित की जा सकती है। अतः निष्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि विषिष्ट षिक्षा को विकसित करने में व्यय धनराषि अनुत्पादक निवेष नहीं है बल्कि दीर्घकालिक रूप में एक उत्पादक निवेष है। कहने की जरूरत नहीं कि षिक्षा के प्रति नयी जागरूकता के बावजूद काम अभी बाकी है। तमाम अभियानों-कार्यक्रमों के बावजूद आज भी देष में लगभग 36 करोड़ लोग षिक्षा से वंचित हैं। राष्ट्रीय षिक्षा नीति 1986 में षिक्षा के मद में सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिषत आवंटन की जरूरत रेखांकित की गयी थी पर यह आजतक नहीं हो सका। 1990 के दषक के दौरान प्रारंभिक षिक्षा पर चालू सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 1.69 से घटकर 1.47 प्रतिषत पर प्रारंभिक षिक्षा को प्राथमिकता देना षोर के बीच ही पहुँच गया। इक्कीसवीं सदी के विष्व में बुनियादी परिवर्तन हो रहा है। इसमें पूंजी, षक्ति तथा वर्चस्व की परिभाषा बदल रही है। आज का समाज ‘ज्ञान का समाज’ है। स्वभावतः बाजार भी ‘ज्ञान का बाजार’ है। आज मानव जाति षिक्षा को एक अपरिहार्य संपदा के रूप में देख रही है। षिक्षा व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास की मूलभूत भूमिका में सामने आ रही है। किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र की षक्ति का निर्धारण उसके ज्ञान की पूंजी के आधार पर होगा। ‘ज्ञान और सूचना’ विष्व की सर्वोत्तम पूंजी बनने वाली है। नई सदी में विष्व के राष्ट्रों ने अपनी कार्य-योजना पर काम करना षुरू कर दिया है। कई विकसित राष्ट्रों ने मानव संसाधन के विकास की अपनी योजना, संसाधन और आवष्यकता की समीक्षा की है। मानव संसाधन की आवष्यकता के परिप्रेक्ष्य में कई राष्ट्रों में पहले से ही काम चल रहे हैं।
सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा लोग प्रबंधन एवं तकनीकी षिक्षा हासिल करें। इससे उनके लिए देष में ही नहीं विदेषों में भी रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। आधुनिक औद्योगिक जगत् में प्रबंधक एक बहुत ही जटिल और तेजी से बदलते हुए वातावरण में कार्य-संपादन कर रहे हैं। वे पहिया में सिर्फ जड़वत नहीं बन सकते, क्योंकि उनका मौलिक कार्य एक वह मार्ग बनाना है, जो ‘इनपुट्स’ से भी अधिक लाभदायक हो सकता है। अनेक वाह्य और आंतरिक बलों, जैसे स्पर्धात्मक बाजार, औद्योगिकी गत्यात्मकता, संगठन-षक्यिाँ और सत्ताधारियों, अधिकारियों, सामाजिक स्थिति और दायित्व तथा भौतिक और सामाजिक वातावरण में हो रहे नियम विरुद्ध परिवत्र्तनों के साथ अंदरूनी संबंध या सामंजस्य स्थापित करने के कार्य भी प्रबंधक के ही हैं। ये बल प्रबंधक की प्रभावोत्पादकता पर बम से आक्रमण कर रहे हैं। लेकिन सबसे चुनौती देने वाला बल यह है कि सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य बहुत ही तीव्र गति से बदल रहे हैं। आधुनिक मान्यताओं पर आधारित उभरते हुए नये सामाजिक मूल्यों की मांग एक ओर जहाँ समानता की संवेदना है, तो दूसरी ओर कानून के नियम का अनुपालन है। अक्षमताओं और अनुषासनहीनता के प्रति उदासीन दृष्टिकोण सामाजिक भावनाओं तथा कुछ करके फुर्सत पा लेने की सामान्य भावना से द्विगुणित या युक्त होकर सभी स्तरों पर ऐसे घुलमिल कर फैल गया है कि इसने (इस दृष्टिकोण ने) प्रबंधकपरक प्रभावोत्पादकता को विकसित सवंर्द्धित करने की समस्या को और भी अधिक जटिल बना दिया है। पिछले दो दषकों में प्रबंधकीय समस्यायें जटिलता के अंकों और अंषों के संदर्भ में कई गुणा बढ़ गयी हैं। अधिकाधिक संगठन इन समस्याओं के समाधान के लिये मौजूद अध्यापन या षिक्षण के औजारों और कौषलों को निष्प्रभावी पा रहे हैं। बिना समाधान वाली इन समस्याओं से संकट उत्पन्न होता है, जिसे (संकट को) प्रबंधकीय प्रभावोत्पादकता के संवर्द्धन द्वारा दूर करने की आवष्यकता है और समस्याओं के संभव समाधान ढूँढ़ निकालने के दृष्टिकोण से प्रबंधकीय प्रभावोत्पादकता के विभिन्न आयामों के सही-सही लक्षण जानने की भी आवष्यकता है। प्रबंधन का भारतीय दर्षन संगठनात्मक प्रभावोत्पादकता को मानवीय मूल्यों पर आघारित मानता है और सभी व्यापारों के केन्द्र में लोगों को रखता है; यह दर्षन भारत की सामान्य प्रकृति अथवा स्वाभाविक विषष्टिता तथा नीतिषास्त्र पर आधारित प्रबंधन के सिद्धांतों का अनुसरण इसलिये करता है कि व्यक्ति-व्यक्ति अपनी-अपनी अंतरात्मा की खोज करने में सक्षम हो सके। यह एक परामर्ष या सदुपदेष है, जो एक सत्य का संदेष देता है और यह सत्य मानवीय मूल्यों के लाभदायक प्रभाव के बारे में है, जो न केवल प्रबंधनपरक है, अपितु आध्यात्मिक अनूभूति और परिपूर्णता के चरित्र का प्रस्फुटनपरक भी है। मेरा निष्कर्ष है, स्वयं अपने को पढ़ाओ, प्रत्येक प्रबंधक को उनकी अपनी वास्तविक प्रकृति पढ़ाओ। सुषुप्त आत्मा का आह्वान करो और देखो यह कैसे जगती है। बल आयेगा, गौरव आयेगा, अच्छाई आयेगी, पवित्रता आयेगी और प्रबंधन में उत्कृष्टता आयेगी तब, जब सोयी आत्मा मूल्यों के माध्यम से चेतनामय कर्म-संपादन तक जगाकर उठा दी जाय। चूंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार का वातावरण बाहुसंख्यक चुनौतियों का सामना कर रहा है, इसलिये यह सार्थक है कि सभी संगठन क्रियात्मक क्षमता स्तर में त्वरित विकास के लिये रास्ते बनायें, अन्यथा कार्य-संस्कृति समुन्नत नहीं की सकती है। इक्कीसवीं सदी का यह एक नारा है-- ‘सफलता हासिल करो या मरो’। प्रबंधन षिक्षा की बेहतर व्यवस्था के जरिये रोजगार क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए प्रचूर संभावनाएं हैं। प्रबंधन एवं तकनीकी षिक्षा तंत्र में ज्यादा स्वायत्तता, स्वतंत्रता और लचीलेपन की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षा सृजनात्मक, उपयोगी, असरदार और प्रासंगिक होनी चाहिए। वास्तव में, हमें जिन इंजीनियरों, प्रबंधक एवं तकनीकी प्रषिक्षित लोगों की दरकार है वह नयी विधाओं में है और हम अपनी आवष्यकतानुसार इंजीनियर, प्रबंधक एवं तकनीकी प्रषिक्षित लोग तैयार नहीं कर पा रहे हैं। चूंकि राज्य में समुचित सुविधाएं और संस्थाएं पर्याप्त नहीं हैं, इसलिये बड़ी संख्या में प्रखर बुद्धि युवा विभिन्न विधाओं, विषेषकर सूचना प्रौद्योगिकी में, इंजीनियरी एवं प्रबंधन षिक्षा राज्य के बाहर में प्राप्त करते हैं। वे प्रमुखतः बंगलौर, हैदराबाद, पुणे और चेन्नई जाते हैं और अधिकतकर वापस न लौटकर अन्यत्र रोजगार ढूंढ़ लेते हैं। जहांतक प्रबंधन एवं सूचना प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में निजी संस्थानों की बहुतायत की बात है, आवष्यक है कि उनके ऊपर पाठ्यक्रम स्तर और श्रेणीकरण पर सामान्य नियंत्रण हो। ऐसे नियंत्रण की प्रकृति के निर्धारण के लिये विषेष अध्ययन और उसके षीघ्र क्रियान्वयन की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षा को रोजगारोन्मुख और रोजगारपरक बनाए जाने की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षा को ज्यादा उपयोगी कौषल से युक्त और साथ ही साथ रोजगार के अवसर बढ़ाने वाली षिक्षा बनाने के लिये रणनीति अपनाए जाने की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षण प्रणाली में उद्यमषीलता के महत्व और काॅलेज षिक्षा के स्तर से ही छात्रों को उद्यमों की स्थापना के प्रति उन्मुख करने पर जोर दिया जाना चाहिए जिससे उन्हें धन अर्जित करने के लिये क्रियाषीलता, स्वतंत्रता और सामथ्र्य प्राप्त हो।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)
दिनांक 05 अगस्त, 2010 को ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के स्थापना दिवस
समारोह के अवसर पर डा॰ जगन्नाथ मिश्र का सम्बोधन।
शैक्षिक पुनर्निर्माण भारत वर्ष के अंतर्गत सर्वाधिक चर्चित विषयों में से एक है। इस विषय पर बहुत कहा जा चुका है। किन्तु षिक्षा के वैष्वीकरण के मुद्दा ने नये रूप से हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। इस विषय पर गर्माहट के साथ विवाद हुए हैं और प्रतिरोध भी हुए हैं। एक दृष्टिकोण है कि उच्च षिक्षा संख्या की दृष्टि से गुणवत्ता की कीमत पर बहुत विस्तृत हुआ है और उच्च षिक्षा की गुणवत्ता क्रमषः अधोगति प्राप्त करती रही है। इसके विपरीत कुछ लोग हैं जो अभी भी महसूस करते हैं कि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देष में उच्च षिक्षा तक पहुँच या इसका अधिकाधिक विस्तार अभी भी एक प्राथमिकता है। ग्रामीण काॅलेज में षिक्षक उन चुनौतियों को देखते हैं जो इस अंतद्र्वन्द से उत्पन्न हुई है। किसी भी राष्ट्र के लिए यह हितकर नहीं होगा कि उच्च षिक्षा के विस्तार को उपेक्षित किया जाय। लेकिन तकनीकी विकास के इस युग में गुणवत्ताविहीन षिक्षा मजाक बनकर रह जाएगी। सबों के लिए गुणवत्तापरक षिक्षा राष्ट्र के समक्ष एक साहसिक कार्यभार है। संविधान के प्राक्कथन में और मौलिक अधिकारों से संबद्ध भाग में ही अंकित है कि समानतापूर्वक जीने का अधिकार और सामाजिक न्याय के साथ जीने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है। यह अधिकार इस अधिकार की पूरी गारंटी है और इसका उच्च से उच्च अर्थ है। माननीय उच्च न्यायालय द्वारा इस आधिकार की अधिकारिक व्याख्या की गई है; जिसका अर्थ है-सम्मान और समानतापूर्ण जीवन स्तर और अवसर जो जीने के अधिकार से संबंधित है। इस व्याख्या में यह भी अंकित है कि षिक्षा मानवीय सम्मान का अति महत्वपूर्ण अंग है और इसलिए षिक्षा संविधान के मौलिक निर्माण में सन्निहित है। इस प्रकार षिक्षा राज्य के लिए मौलिक दायित्व है ताकि प्रत्येक भारतीय वर्ग, वर्ण, जाति-रंग सामाजिक-आर्थिक स्तरों से निरपेक्ष होकर गुणवत्तापूर्ण उच्च स्तरीय षिक्षा की संस्था तक सबों को पहुँचाया जाय। करीब 70 प्रतिषत भारत की आबादी ग्रामीण एवं अर्धषहरी क्षेत्रों में जीवन बसर करती है। हमारी जनसंख्या के 15करोड़ से अधिक 17-18 वर्षों की उम्र सीमा में आते हैं जिनका एक छोटा हिस्सा हीं इतना षिक्षित हो पाते हैं कि बेहतर जीवन के निमित्त जीवकोपार्जन कर सकें। करोड़ों-करोड़ भारतीयों को षिक्षित करना और सषक्त करना हमारा सर्वोत्तम लक्ष्य है, गरीबी कम करने का और 2020 तक एक विकसित राष्ट्र होने का। यह लक्ष्य सबों को गुणवत्तापूर्ण उच्च षिक्षा प्राप्त करके हीं प्राप्त किया जा सकता है। जैसे आज ज्ञान भौतिक संपदा को उत्पन्न करता है जो वर्तमान एवं भविष्य का धनश्रोत है वैसे हीं उच्च षिक्षा के महत्व को भी एक देष के विकास में विषेष बल प्रदान करता है। समाज में षिक्षा कई प्रकार के कार्य संपादित करती है जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण जो कार्य हैं उनमें सामाजिक विकास के साधन की भूमिका, सामान्य जीवन के सुव्यवस्थित संचालन में प्रगति की भूमिका, समाज की आर्थिक प्रतिस्पर्धा में भूमिका साथ हीं व्यक्तिगत अभ्युन्नति के माध्यम की भूमिका। राष्ट्र के आर्थिक विकास एवं षिक्षा के बीच सीधा सम्पर्क होता है। आज के बदलते संसार में जहाँ मानव जाति का जीना हीं आतंकित है, गरीब एवं अमीर के बीच में सामाजिक दूरी है, षिक्षित एवं कम षिक्षित के बीच सामाजिक दूरी प्रवृत्त है वहाँ हमारा सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य यह हो जाता है कि हम जीवन की गुणवत्ता में क्रमिक विकास को सुनिष्चित करें, वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के लिए। ग्रामीण क्षेत्र के काॅलेजें इस लक्ष्य की प्राप्ति में बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं लेकिन ये काॅलेज आवष्यकताओं एवं खाइयों की श्रृंखला से जूझ रहे हैं जिन पर तुरंत ध्यान देने की आवष्यकता है जिससे षैक्षिक उपलब्धि के स्तरों को तेज रफ्तार दी जा सके। उस आधारभूत संरचना की अपर्याप्तता जिस आधारभूत संरचना से उच्चत्तर षैक्षिक तत्वों के लिए भौतिक सुविधाएं उपलब्ध होती है, इन संस्थाओं द्वारा उत्पन्न की गई वास्तविकता को पीछे खींचती है। संस्थाओं के बीच संसाधनों के असमान वितरण के कारण उत्पन्न समस्याओं से गुणवत्ता का अधिक हªास तो हो हीं जाता है। ये ग्रामीण काॅलेज जिस स्थिति से गुजर रहें हैं; वह स्थिति षिक्षा के उद्देष्य को ज्यादा हानि पहुँचाती है और षिक्षा को षैक्षिक प्रजातंत्र को वाहन होने में (यह स्थिति) हानिकारक है अर्थात् षिक्षा अधिक से अधिक लोगों तक नहीं पहुँच पाती और न तो उन तक विस्तार हीं पाती है। वस्तुतः ग्रामीण काॅलेजों की यह खतरनाक स्थिति है जो हमारे मन को झकझोरती रहती है और इसी स्थिति में यह विषय चर्चा के लिए उठाना पड़ता है, इस स्थिति की भूमिका का जो उच्च षिक्षा की विस्तार में हुई है, उस भूमिका का मूल्यांकन हमें करना है; हमें ग्रामीण काॅलेजों की संभावनाओं और बंदिषों पर विचार-विमर्ष करना है। मुख्य रूप से कैसे ये काॅलेज षैक्षिक प्रजातंत्र का वाहन बन सकेंगे? और कैसे इन्हें एक प्रभावी ऐसा हथियार बनाया जाएगा जिससे हम समाज के दलितों, वंचितों, बेकारों के उत्थान का साहसिक कार्य कर सकेंगे? और कैसे यह हथियार उच्च षिक्षा के वैष्वीकरण विकास द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों को निष्पादित करने में सषक्त हो सकेगा। किसी भी राष्ट्र के विकास और समृद्धि के लिए सबसे जरूरी तत्व षिक्षा है। भारत 2020 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है। परंतु अभी हमारे देष में ऐसे 30 करोड़ 50 लाख लोग हैं जिन्हें साक्षर बनने की जरूरत है और ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें उभरते हुए आधुनिक भारत और विष्व के अनुकूल रोजगार योग्य कौषल प्राप्त करना है। इसके अलावा हमें समाज के कमजोर वर्गों के उन बच्चों के बारे में सोचना चाहिए जो अल्प पोषित हैं और उनमें से कुछ प्रतिषत ही 8 वर्ष तक की अपनी षिक्षा पूरी कर पाते हैं जबकि अब षिक्षा प्रत्येक भारतीय बच्चे का मौलिक अधिकार है। क्या हम चाहेंगे कि ये लाखों बच्चे जीवनभर गरीबी में जीते रहें? जरूरत इस बात की है कि अभिभावकों को अपने बच्चों को नजदीकी स्कूल में ले जाकर दाखिला करवाना चाहिए और प्रसन्नता और इस विष्वास के साथ वापस घर लौटना चाहिए कि उनका बच्चा उस स्कूल में अच्छी और नैतिक मूल्यों की षिक्षा प्राप्त करेगा। मानसिक और षारीरिक रूप से अक्षम बच्चों की ओर भी ध्यान देने की आवष्यकता है। इन गंभीर मुद्दों के महत्व को देखते हुए और अपनी पुरानी मानसिकता को समाप्त करने के लिए, सभ्यता के अस्तित्व और विकास हेतु एक प्रभावी और स्वनिर्मित षिक्षा प्रणाली की आवष्यकता है। अनेक कारणों से षैक्षिक संसाधनों तक असमान पहुंच अभीतक बनी हुई है। उदाहरण के लिए तीन प्रकार के परिवार देखे हैं। पहले, वे भाग्यषाली परिवार, जो किसी भी कीमत पर परिवार के बच्चों को षिक्षित करने और अपनी आर्थिक संपन्नता के कारण सभी स्तरों पर उनका मार्गदर्षन करने का महत्व जानते हैं। फिर वे परिवार हैं, जो षिक्षा का महत्व तो जानते हैं, पर अपने बच्चों के लिए अवसर और उन्हें साकार करने की प्रक्रिया और तरीकों के बारे में नहीं जानते। तीसरे प्रकार के परिवार हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और जो षिक्षा के महत्व को नहीं जानते हैं, पीढ़ीयों से उनके बच्चे उपेक्षा और गरीबी में जीते आ रहे हैं। यह आवष्यक है कि हम समाज के सभी वर्गों, विषेषकर ग्रामीण क्षेत्रों और षहर में रहने वाले गरीबों को षिक्षा के प्रति जागरूक बनाएं। हमें इस महत्वपूर्ण सामाजिक उद्देष्य के लिए प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना चाहिए। गैर सरकारी संगठनों, अन्य सामाजिक और लोकोपकारी संस्थाओं और मीडिया के लिए इस क्षेत्र में जागरूकता पैदा करना संभव है। अल्प सुविधा प्राप्त लोगों को षिक्षा उपलब्ध करवाने के लिए हमें आवष्यक संसाधनों को गतिषील बनाना चाहिए। पिछले 50 वर्षों से, प्रत्येक सरकार सर्वव्यापी षिक्षा का राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्त करने के प्रति कटिबद्ध रही है और षिक्षा के लिए लगातार बजटीय आवंटन में वृद्धि की गई है, जबकि हमारी 35 प्रतिषत प्रौढ़ जनसंख्या को अभी षिक्षित किया जाना है। हमारे सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिषत के रूप में षिक्षा पर वास्तविक सार्वजनिक व्यय का हमारी साक्षरता पर सीधा असर होता है। इस समय देष में षिक्षा पर किया जा रहा व्यय सकल धरेलू उत्पाद के 4 प्रतिषत से कुछ अधिक है। यदि हमें षत-प्रतिषत साक्षरता प्राप्त करनी है तो षिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 6 से 7 प्रतिषत व्यय जरूर करना होगा। 2 से 3 प्रतिषत तक की इस वृद्धि को कुछ वर्षों तक बनाए रखना होगा। इसके बाद षिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद के कम अनुपात में आवंटन भी भविष्य में साक्षरता का उंचा स्तर कायम रखने के लिए पर्याप्त होगा।
पहली पंचवर्षीय योजना से दसवीं पंचवर्षीय योजना का तुलनात्मक अध्ययन दर्षाता है कि जहाँ एक ओर महाविद्यालयों तथा विष्वविद्यालयों की संख्या के साथ षिक्षकों एवं छात्रों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है वहीं उच्च षिक्षा पर राज्यों द्वारा किया जा रहा व्यय एवं केन्द्र सरकार द्वारा आवंटित अनुदान राषि में क्रमषः गिरावट परिलक्षित हो रही है। आंकड़े देष में षिक्षा की गति एवं उसके स्तर पर सवालिया निषान लगा रहे हैं। कहना न होगा कि हम षिक्षा के क्षेत्र में इतना आगे बढ़ गये हैं कि निरक्षरता में दुनिया भर में सबसे आगे पहुँच गये हैं। आज चीन, श्रीलंका, क्यूबा आदि देष षिक्षा के मामले में हमसे आगे हैं। इस समय देष में 16 करोड़ 10 लाख बच्चे प्राथमिक षिक्षा तक से वंचित है। इसमें 10 करोड़ 24 लाख बच्चे 6 से 11 वर्ष की उम्र के हैं और 6 करोड़ 7 लाख बच्चे 11 से 14 वर्ष की उम्र के हैं जबकि 160 लाख से अधिक बच्चे मजदूरी करने को अभिषप्त है। राष्ट्रीय स्तर पर इस सोच को विकसित करना आवष्यक है कि राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए उच्च षिक्षा की गुणवत्ता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसके लिए आवष्यक रूप से अध्ययन एवं अध्यापन में गुणात्मक सुधार होना चाहिये। षिक्षकों के आदर्ष मूल्यों का पुनरावलोकन हो एवं अपचयित संसाधनों की पूर्ति की जाये। उच्च स्तर के षोध एवं विकास के दृष्टिगत निपुण षिक्षकों की मांग की प्रतिपूर्ति के साथ-साथ समानांतर दिषा में वे क्षेत्र भी विकसित करने होंगे जिनमें बौद्धिक वर्ग के लिए देष में ही रोजगार उपलब्ध हों और देष उनकी सेवा का लाभ उठा सके। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो॰ अमत्र्य से न ने विष्वविद्यालय को विकसित करने के लिए प्रत्येक स्तर पर सर्वांगीण गुणवत्ता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उच्च षिक्षा से ही किसी राष्ट्र का वास्तविक विकास संभव हो पाता है क्योंकि उच्च षिक्षा से ही किसी राष्ट्र को अच्छे इंजीनियर, डाक्टर, व्यवसायी, अधिवक्ता, लेखा विषेषज्ञ, आचार्य (प्रोफेसर) तथा सभी क्षेत्रों से संबंधित कुषल तकनीक कर्मियों की उपलब्धता सुनिष्चित की जा सकती है। अतः निष्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि उच्च षिक्षा को विकसित करने में व्यय धनराषि अनुत्पादक निवेष नहीं है बल्कि दीर्घकालिक रूप में एक उत्पादक निवेष है। कहने की जरूरत नहीं कि साक्षरता के प्रति नयी जागरूकता के बावजूद कितना काम अभी बाकी है। तमाम अभियानों-कार्यक्रमों के बावजूद आज भी देष में लगभग 36 करोड़ लोग ‘काले-काले अक्षरों को नहीं चीन्हने वाले’ ही हैं। साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि साक्षरता अभियान के तहत नवसाक्षर बने लगभग 10 करेाड़ लोग व्यवहारतः दस्तखत वगैरह तक ही सीमित है। आज 2001 की जनसंख्या में साक्षरता दर की जिस वृद्धि की चर्चा है उसमें ऐसे नवसाक्षरों की संख्या का बड़ा योगदान है। राष्ट्रीय षिक्षा नीति 1986 में षिक्षा के मद में सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिषत आवंटन की जरूरत रेखांकित की गयी थी पर यह आजतक नहीं हो सका। 1990 के दषक के दौरान प्रारंभिक षिक्षा पर चालू सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 1.69 से घटकर 1.47 प्रतिषत पर प्रारंभिक षिक्षा को प्राथमिक देने के षोर के बीच ही पहुँच गया। इक्कीसवीं सदी विष्व में बुनियादी परिवर्तन हो रहा है। इसमें पूंजी, षक्ति तथा वर्चस्व की परिभाषा बदल जाएगी। कल का समाज ‘ज्ञान का समाज’ होगा। स्वभावतः कल के बाजार भी ‘ज्ञान के बाजार’ होंगे। आज मानव जाति षिक्षा को एक अपरिहार्य संपदा के रूप में देख रही है। षिक्षा व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास की मूलभूत भूमिका में सामने आ रही है। किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र की षक्ति का निर्धारण उसके ज्ञान की पूंजी के आधार पर होगा। कल के युद्ध तोप, टैंक या मिसाइल से नहीं, बल्कि ‘सूचना और ज्ञान’ की ताकत से बाजार में लड़े जाएंगे, जैसाकि पेटेंट कानून को लेकर संघर्ष षुरू हो गया है। विष्व में यह नाटकीय बदलाव दिखने भी लगा है। लगभग दो सदी से तेल-व्यापार की बदौलत विष्व के धनवान व्यक्तियों में सर्वोच्चता बनाए रखने वाले जान राकफेलर और ब्रुनेई के सुलतान अपना स्थान खो चुके हैं। आज ज्ञान की उद्यमिता के बल पर बिल गेट्स विष्व के सबसे अमीर व्यक्ति बन गए हैं। इस प्रकार ‘ज्ञान और सूचना’ विष्व की सर्वोत्तम पूंजी बनने वाली है। नई सदी में विष्व के राष्ट्रों ने अपनी कार्य-योजना पर काम करना षुरू कर दिया है। कई विकसित राष्ट्रों ने मानव संसाधन के विकास की अपनी योजना, संसाधन और आवष्यकता की समीक्षा की है। मानव संसाधन की आवष्यकता के परिप्रेक्ष्य में कई राष्ट्रों ने पहले से ही काम चल रहे हैं। इंग्लैंड और फ्रांस जैसे विकसित देषों ने अपनी षिक्षा-व्यवस्था की संरचनात्मक मजबूती के वास्ते बजट प्रावधान में भारी वृद्धि की है। इस समय इसकी आवष्यकता है कि षैक्षणिक क्षेत्र में अन्य विषयों के अतिरिक्त निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार-विमर्ष कर एक ठोस कार्य योजना प्रस्तुत किया जाए:- (1) आधुनिकीकरण निजीकरण एवं वैष्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में उच्च षिक्षा एवं राष्ट्रीय विकास। ( 2) ग्रामीण भारत के संदर्भ में उच्च षिक्षा के विकास में विष्वविद्यालय अनुदान आयोग की भूमिका। (3) उच्च षिक्षा के बदलते परिदृष्य में षिक्षकों की भूमिका और कर्तव्यषीलता। (4) बिहार में काॅलेज और विष्वविद्यालय प्रषासन के उद्भव, विकास और निर्माण। (5)आधुनिकीकरण, निजीकरण, वैष्वीकरण एवं तकनीकी विकास के युग में ग्रामीण भारत के मद्देनजर ग्रामीण काॅलेज की, राष्ट्र निर्माण में, भूमिका।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

Thursday, December 9, 2010

मुसलमानों के आर्थिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक हालात में बदलाव आवष्यक - 16 अगस्त, 2010

- डा॰ जगन्नाथ मिश्र

मानवाधिकारों की दृष्टि से भी पिछड़े हुए अल्पसंख्यकों के लिए विषेष प्रयत्न करना राज्य का कर्Ÿाव्य है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1992 में घोषित अल्पसंख्यकों के अधिकार के अनुच्छेद- 2 में सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक जीवन में भाग लेने के अधिकार के साथ-साथ आर्थिक और सार्वजनिक जीवन में भाग लेने के अधिकार को भी स्पष्ट स्वीकृति दी गई है। अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देना किसी भी सभ्य और जागरुक राष्ट्र की पहली पहचान है। गांधीजी ने भी कहा था कि सभ्यता का दावा करनेवाले किसी भी राष्ट्र की कसौटी यही है कि उसने अल्पसंख्यकों के साथ किस तरह का आचरण या व्यवहार बनाकर रखा है। देष के लोग वस्तुतः कितना स्वतंत्र हैं इसकी परख इस बात से भी होती है कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोग देष में अपने को कितना सुरक्षित समझते हैं। अल्पसंख्यकों की हालत के संबंध में न्यायमूर्ति सच्चर की रिपोर्ट में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के जो आंकड़े दिए गए हैं वे काफी चिंताजनक हैं और हमारी विकास प्रक्रिया के एक भारी असंतुलन को दर्षाते हैं। यानी देष में न केवल विभिन्न क्षेत्रों और तबकों के बीच बल्कि समुदायों के स्तर पर भी गहरी खाई मौजूद है। सच्चर समिति की रिपोर्ट बताती है कि चाहे षिक्षा का क्षेत्र हो या नौकरियों और कारोबार का, मुसलमान न सिर्फ हिन्दुओं की तुलना में बल्कि दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों के मुकाबले भी काफी पिछड़े हुए हैं। कई मायनों में उनकी हालत हिन्दू समाज के अत्यंत पिछड़े एवं दलित तथा आदिवासियों से भी खराब है। देष की कुल आबादी में वे करीब 16.6 फीसद हैं। इसलिए मानवीय तकाजे के अलावा सामाजिक सामंजस्य और राष्ट्रीय एकता की मजबूती के लिहाज से भी उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने के विषेष प्रयास होने चाहिए। इस संदर्भ में सच्चर समिति ने कई सिफारिषें की हैं। सच्चर समिति की रिपोर्ट बताती है कि मुसलमानों की अच्छी-खासी आबादी वाले राज्यों में ही उनकी हालत सबसे ज्यादा खराब है। इन राज्यों के मुस्लिम बाहुल्य गांव स्कूल, पेयजल जैसी बुनियादी ढांचागत सुविधाओं तक से वंचित हैं। पढ़ाई कर रहे मुस्लिम बच्चों में से महज चार फीसद मदरसों में जाते हैं। इस बीच मुस्लिम समुदाय का राजनीतिक समर्थन पाने के लिए तमाम तरह के वादे किए जाते रहे, उनके कल्याण के कुछ कार्यक्रम भी घोषित किए गए। लेकिन ताजा रिपोर्ट से जाहिर है कि इन योजनाओं का लाभ उन तक नहीं पहुँचा है। लिहाजा, सच्चर समिति की सिफारिषों के मद्देनजर जो भी कदम उठाए जाएं, समय-समय पर उनके नतीजों की समीक्षा भी होनी चाहिए। सच्चर समिति की रपट ने अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज की आर्थिक, षैक्षणिक और सामाजिक स्थिति के बारे में जो निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं, उन्हें देखते हुए किसी भी लोकतांत्रिक राज्य के लिए यह आवष्यक हो जाता है कि वह इस समाज की स्थिति सुधारने के लिए विषेष प्रयत्न करे। अल्पसंख्यकों की आर्थिक, सामाजिक, षैक्षणिक एवं नियोजन के अध्ययन के लिए भारत सरकार द्वारा गठित सच्चर एवं रंगनाथ मिश्र आयोगों की अनुषंसाओं पर रिपोर्ट प्राप्त होने के तीन वर्ष बाद भी केन्द्र सरकार के स्तर से अनुषंसाओं के संदर्भ में कार्यान्वयन अत्यंत षिथिल बना रहा है जो अत्यंत ही विस्मयकारी है। इन आयोगों ने प्रतिवेदन में कहा था कि अल्पसंख्यकों विषेषकर मुसलमानों की स्थिति अत्यंत दयनीय लगातार बनी रही है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के प्रारुप के समय प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की थी कि देष के साधन पर पहला अधिकार मुसलमान का है। परंतु 11वीं योजना के तीन वर्ष बीतने के बाद भी मुसलमानों के लिए उनकी 16 प्रतिषत आबादी, उनकी गरीबी, उनकी सामाजिक, षैक्षणिक एवं नियोजन में उनके निम्नतम साझेदारी के बावजूद भी सच्चर एवं रंगनाथ मिश्र के अनुषंसाओं के कार्यान्वयन के लिए लम्बित है। षिक्षा रोजगार मद में अधिक व्यय की अपेक्षा है और सरकारी सेवाओं में आबादी के अनुपात में उनमें प्रतिनिधित्व को सुनिष्चित करने के दृष्टि से रंगनाथ मिश्र आयोग की अनुषंसाओं के आलोक में मुसलमानों को अन्य पिछड़े वर्गों की तरह संविधान के अनुच्छेद 16 (4) के अंतर्गत आरक्षण सुनिष्चित की जाए। अब जब उच्चतम न्यायालय ने सामाजिक षैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर मुसलमानों को अन्य पिछड़े वर्गों की तरह आरक्षण को जायज ठहरा दिया है। देष में अल्पसंख्यकों की आबादी 16.6 फीसदी है। इसलिए यह सचमुच गौर करने की बात है कि आजादी के 62 साल बीतने के बाद भी आबादी के इतने बड़े हिस्से की भागीदारी राष्ट्र की भलाई से जुड़े कामों में उतने से भी कम क्यों हो गई जितनी आजादी हासिल करने के समय थी। कुछ ऐसा देखनें में आता है कि अल्पसंख्यकों में निराषा छा गयी है कि उन्हें षिक्षण संस्थानों में, सरकारी सेवाओं में, बैंक के क्षेत्र में, प्राइवेट कारोबार में कितनी कम नौकरी मिली और पार्लियामेंट तथा राज्य विधान मंडल में कितना कम हिस्सेदारी मिली। जिन राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय स्तर के सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं की सरकार से संरक्षण मिलता है और तरह-तरह की सहायता भी मिलती है उनमें अल्पसंख्यकों का कम प्रतिनिधित्व है। इन हालात को देखते हुए अब अल्पसंख्यक समुदाय को भी सोचना चाहिए तथा देषवासियों को देखना चाहिए कि सुधार किस तरह लाये जाएं। देष में जो विकास कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं उनसे मिलनेवाले फायदे अल्पसंख्यकों को भी पूरे तौर पर सही ढंग से मिले। मुसलमानों को मुख्य धारा में षामिल करने के लिए एवं उन्हें षैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक एवं रोजगार में समानता लाने के उद्देष्य की प्राप्ति के लिए षिक्षा पर सबसे अधिक बल देना होगा और षिक्षा पर बड़े पैमाने पर व्यय करना पड़ेगा। मुसलमान बाहुल्य जिलों एवं राज्यों में आवासीय विद्यालय एवं महाविद्यालय की स्थापना को प्राथमिकता देनी होगी। राजनीति से उपर उठकर मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक, षैक्षणिक एवं नियोजन में बढ़त स्थापित करने का प्रयत्न करनी चाहिए।
कोशी त्रासदी के दो वर्ष - 17 अगस्त, 2010
- डा॰ जगन्नाथ मिश्र

18 अगस्त, 2008 में कोषी की बाढ़ के रूप में इतनी बड़ी आपदा देष ने पहलीबार झेली है। 5 जिलों (सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, अररिया और पूर्णियां) के 35 प्रखंडों के 412 पंचायतों, जिनमें 993 गाँव सन्निहित है, में कुल 33,45,545 की आबादी प्रभावित हुई। कुल 3,40,742 मकानों की क्षति हुई, 3 लाख हेक्टेयर खेती की क्षति से बालू भर गयी और 7,12,140 पषु भी प्रभावित हुए। सरकार को वृहद् पैमाने पर लोगों को बचाने एवं सहाय्य के कार्य करने पड़े तथा अभी भी बहुत बड़े पैमाने पर पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण का कार्य करना पड़ेगा। इसके लिए राज्य सरकार ने 14 हजार 800 करोड़ की योजना बनाई है। प्रधानमंत्री डा॰ मनमोहन सिंह से अन्य राज्यों की तर्ज पर कोषी पैकेज विमुक्त करे। परंतु अभीतक पुनर्वास कार्य प्रारंभ नहीं हुआ है। केन्द्र सरकार को तुरंत पुनर्निर्माण एवं पुनर्वास के लिये 14,800 करोड़ रूपये की राषि स्वीकृत करनी चाहिये। 18 अगस्त, 2008 को पूर्वी एफलाॅक्स बांध नेपाल में कुसहा के समीप टूटने के पश्चात भयंकर त्रासदी के उपरांत मुख्यमंत्री श्री नीतीष कुमार द्वारा कोषी टूटान (कुसहा टूटान) की मरम्मती का कार्य पूरा कर लिया गया। कोषी नदी के किनारे निर्मित पूर्वी एवं पष्चिमी कोषी तटबंधों के ऊँचीकरण सुदृढ़ीकरण के साथ ही कोषी तटबंध के उपर सड़क निर्माण कार्य का षुभारंभ किया गया है। कोषी पुनर्निर्माण योजना की कड़ी में वीरपुर हवाई अड्डा पर पूर्वी कोषी नहर प्रणाली के विस्तारीकरण, जीर्णोद्धार एवं आधुनिकीकरण का कार्य 750 करोड़ की लागत से प्रारंभ किया गया है। उसके अलावा 85 करोड़ की लागत से कोषी बराज के सभी फाटकों का जीर्णोद्धार कार्य प्रारंभ किया गया है। कोषी त्रासदी से उत्पन्न लोक पीड़ा एवं ललित बाबू द्वारा कराये गये योजना को ध्वस्त देखकर ही कोषी क्षेत्र का व्यापक भ्रमण एवं क्षति का आकलन के उपरांत ही उन्होंने (डा॰ मिश्र) ने कोषी की पुनर्निर्माण के लिए ही अपनी सेवा सौंपी है। मानवाधिकार संरक्षण प्रतिष्ठान द्वारा पूर्व अभियंता प्रमुख और गंगा आयोग के पूर्व अध्यक्ष, श्री गोकुल प्रसाद की अध्यक्षता में गठित 11 सदस्यीय विषेषज्ञ कमिटी से प्रतिवेदन सरकार को सौंपी थीं और वे पुनर्वास तथा पुनर्निर्माण के लिए अनेक सुझाव समय-समय पर केन्द्र और राज्य सरकार को सौंपते रहे हैं। 18 अगस्त, 2008 को कोषी एफलाॅक्स बांध टूटने के कारण कोषी क्षेत्र में हुए प्रलय के चलते कोषी बांध के क्लोजर कार्य षीघ्र पूरा किये जाने, राहत कार्य चलाने, पुनर्वास कार्य एवं कोषी पुनर्निर्माण किये जाने के लिए मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री से लगातार अनुरोध करते रहे हैं। उन्हें इस बात की प्रसन्नता है कि मुख्यमंत्री श्री नीतीष कुमार ने बेहतर कोषी बनाने के संकल्प को पूरा करते दिख रहे हैं। अभी हाल में उपलब्ध तथ्यों और सूचनाओं के आधार पर भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक ने अपने 31 मार्च, 2009 के प्रतिवेदन में यह स्थापित किया है कि कोषी के पूर्वी एफलक्स बांध के कुसहा टूटान के लिए जल संसाधन विभाग पूर्ण रुप से उŸारदायी है। इस टूटान के कारण बिहार राज्य में बड़ी तबाही और बर्वादी हुई। टूटान से कोषी की धारा बदली और पांच जिलों- सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया एवं पूर्णियां की 35 लाख आबादी बूरी तरह प्रभावित हुई। करोड़ों रुपयों की क्षति हुई। 3.5 लाख से अधिक परिवार गृहविहीन हुए। बड़ी मात्रा में धन जन एवं मवेषी की बर्वादी प्रतिवेदित हुई। प्रतिवेदन में जल संसाधन विभाग को इसलिए उŸारदायी ठहराया गया है कि उसने टूटान से पहले ही षीर्ष प्रमण्डल वीरपुर एवं तटबंध प्रमण्डल वीरपुर द्वारा अनुषंसित स्पर एवं तटबंधों के संरक्षण एवं मरम्मति संबंधित प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया। उनके द्वारा अनुषंसित प्रस्तावों को विभाग यदि स्वीकृत किया होता और 2008 के मानसून से पूर्व कोषी तटबंधों विषेषतया पूर्वी तटबंध का क्षरण रोधी कार्य पूरा करा लिया होता तो राज्य को इस त्रासदी से बचाया जा सकता था। कोषी उच्च स्तरीय कमिटी की अनुषंसाओं को यदि समय पर स्वीकार कर लिया गया होता और नेपाल भारत के बीच समन्वय बना होता तो ऐसी विपदा से उस क्षेत्र को बचाया जा सकता था। अबतक यह परंपरा रही है कि संवेदनषील, कमजोर तटबंधों का रख-रखाव एवं संरक्षण कोषी उच्च स्तरीय समिति की अनुषंसाओं के आधार पर मानसून के पूर्व किया जाता रहा है, किन्तु 2008 में टूटान के पहले ऐसा कुछ नहीं किया जा सका। स्थानीय अभियंताओं ने 11 स्थलों पर कार्य करने की अनुषंसा की थी परंतु विभाग ने 11 स्थानों के बदले केवल 5 स्थलों की स्वीकृति प्रदान की। उन अनुषंसाओं में कुसहा का वह स्थान भी सम्मिलित था जहाँ टूटान हुआ। तथ्यों के आलोक में प्रतिवेदन में कहा गया है कि जल संसाधन विभाग की पूरी लापरवाही, कर्तव्यहीनता तथा तत्परता का अभाव प्रमाणित होता है। क्षेत्रीय अभियंताओं की चेतावनी को विभाग ने गंभीरता से नहीं लिया। प्रतिवेदन में काग ने यह स्पष्ट किया है कि हर वर्ष मानसून प्रारंभ के पूर्व ही कटाव निरोधक कार्य पूर्ण करा लिया जाता था। परंतु 2008 में ऐसा नहीं हुआ। प्रतिवेदन में यह भी कहा गया है कि टूटान स्थल नेपाल में स्थित है इसलिये जल संसाधन विभाग के लिये आवष्यक था कि नेपाल से सम्यक समन्वयक स्थापित कर निर्माण कार्य को पूरा कराता सुरक्षा की व्यवस्था करबाता। यह भी विस्मयकारी रहा है कि जून, 2006 के बाद इन दोनों देषों के बीच ऐसे संवेदनषील लोक महत्व विषय पर दोनों देषों के बीच गठित समन्वय समिति की बैठक नहीं हुई। राज्य सरकार ने संपूर्ण प्रकरण (तटबंध के कटान के कारणों तथा भविष्य में पुनरावृति न हो) लोक महत्व को विषय के लिए पटना उच्च न्यायालय के अवकाषप्राप्त मुख्य न्यायाधीष श्री बालिया की अध्यक्षता में जाँच आयोग ब्वउउपेेपवद व िप्दुनपतल ।बज 1952 के अंतर्गत गठित किया है ताकि इस पूरे प्रकरण से संबंधित सारे तथ्य स्पष्ट हो सकें।
लयंकारी बाढ़ के दो वर्ष बाद भी कोषी क्षेत्र की निम्नलिखित समस्याओं को प्राथमिकता दी जाए:-कोषी बाढ़ से क्षेत्र की समस्याएँ:- (1) कृषि योग्य भूमि से होकर नदी की नई धार बनना। (2) कृषि योग्य भूमि पर बालू की रेत जमा होना। (3) फसल की संभावना नुकसान रूप होना। (4) कृषि योग्य भूमि में बीज का अंकुरण नहीं होना। (5) बटाईदारों की समस्या (बटाईदार, ब्याज पर कर्ज लेकर बटाई खेती करते हैं। कर्ज का भार बना हुआ है। इनको कब क्या मिलेगा?) (6) कोषी बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र में पेड़ पौधे सूखने की समस्या। (7) पेयजल की समस्या। (8) गृह क्षतिग्रस्त की समस्या। (9) आवासहीनता एवं आवास भूमि की समस्या। (10) घरेलू सामग्री क्षति की समस्या। (11) यातायात बाधित एवं क्षतिग्रस्त। (12) मृत्यु एवं विकलांगता की समस्या। (13) मवेषी क्षति की समस्या। (14) भूख की समस्या। (15) रोजगार (मजदूरी) की समस्या। (16) पलायन की समस्या। (17) अधिक ब्याज दर पर कर्ज कर्ज लेने की विवषता। (18) मानसिक तनाव की समस्या (कोषी बाढ़ पीड़ितों स्थिति) (19) बाल मजदूरों का व्यापार। (20) गर्वभती महिलाओं एवं नवजात बच्चों की समस्या। (21) जानवरों को कम मूल्य पर बेचे जाने की समस्या। (22) वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था। गाँव का बदला भौगोलिक क्षेत्र और पर्यावरण: नेपाल प्रभाग में कुसहा तटबंध टूटा; वहाँ से जब कोषी नदी ने अपनी प्रलयंकारी धाराओं के साथ जब दिषा बदली और वह सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, कटिहार, खगड़िया के जिन क्षेत्रों में अपनी धाराओं में गुजरी तो अपने प्रभाव में आने वाले क्षेत्रों के जन-जीवन का नक्षा ही बदल कर रख दिया। कोषी नदी अपने साथ लाई बालू (गाद) से यहाँ की जमीनों का पूरा भौगोलिक परिवर्तन कर दिया। कोषी की बाढ़ से यहाँ की जमीनों का प्रकार बदल गया है जो निम्न रूप से श्रेणीबद्ध है: (1) पाक युक्त जमीन: बाढ़ के साथ आई पाक जिसे कृषि वैज्ञानिक पूसा की टीम ने केवल पाक युक्त जमीन नाम दिया जिसमें नमी को बरकरार रखने की क्षमता है, परंतु मिट्टी जाँच के उपरांत उसमें अंकुरण नहीं होता है यदि कहीं होता है तो पौधा 1 से 1-2 सेंटी मीटर का होकर पीला होकर रह जाता है। इस रासायनिक पदार्थों की कमी को दूर कर इनको ठीक किया जा सकता है। फिर हर तरह की फसल इन जमीनों में उगाई जा सकती है। (2) पाक बालू युक्त जमीन: इस जमीन का किस्म एक से तीन इंच तक पाक होता है उसके नीचे बालू ही बालू है। कृषि वैज्ञानिकों की माने तो ऐसे जमीन में नमी को अत्याधिक समय तक रखने की क्षमता नहीं है। इस प्रकार की जमीनों में अत्यधिक पानी (सिंचाई) की आवष्यकता है। खेत को उर्वरा षक्ति देने वाली फसलें यानी मूंग, मुंगफली, आलू इस प्रकार की फसलें समुचित सिंचाई के बाद उगाई जा सकती है। (3) षुष्क बालू युक्त जमीन: कृषि वैज्ञानिकों की राय में इस प्रकार की जमीन में नमी बरकरार रखने की क्षमता नहीं होती है। इस जमीन में (1 मीटर/ 1 मीटर) गड्ढ़ा खोद कर उसमें बर्मी कम्पोस्ट और मिट्टी डालकर उसमें आंवला, लिच्ची का पेड़ लगाया जा सकता है, वहीं कद्दू, परवल, तरबूज, ककड़ी आदि की फसलें उगाई जा सकती है।
पर्यावरण: कोषी की बाढ़ आने के पष्चात पर्यावरण में एक बड़े परिवर्तन को यहाँ के लोग महसूस कर रहे हैं। यथा लुप्त प्राय कई पक्षियों की प्रजातियों वापस इस इलाके में दिखाई पड़ने लगी हैं जो यहाँ से लुप्त हो गई थीं तो अब सर्वत्र दिखाई पड़ती हैं। परंतु मानसून में भारी परिवर्तन देखा जा रहा है, जिससे यहाँ के किसान भविष्य को लेकर आषंकित हैं जहाँ हर साल गेहूँ के समय और उसके बाद भारी वर्षा होती थी वहीं इस साल एक बार भी वर्षा जल देखने के लिए यहाँ के किसान तरस गए। कोषी प्रलय में संसाधनों की व्यापक क्षति हुई है। इस क्षति की भारपाई करने एवं इन क्षेत्रों को पहले से बेहतर बनाने के लिए राज्य सरकार ने संकल्प लिया है। इस दृष्टिकोण से मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में कोषी पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण समिति का गठन किया गया है। जिला स्तर पर जिला प्रभारी मंत्री केी अध्यक्षता में समिति गठित की गई। राज्य सरकार के आग्रह पर केन्द्रीय दल बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों की क्षति का आकलन हेतु बिहार आया था। इन दलों को प्रभावित जिलों से क्षति का प्रारंभिक ब्योरा एवं इसके पुनर्निर्माण पर होने वाले खर्च का आकलन कर एक समेकित ज्ञापन राज्य सरकार की ओर से समर्पित किया गया। कुल 14808.59 करोड़ रू॰ का मेमोरेन्डम केन्द्र सरकार, गृह मंत्रालय को समर्पित किया गया, परंतु इसके विरूद्ध अभीतक मात्र 497.35 करोड़ की राषि स्वीकृत की गई है जो असंगत एवं तर्कहीन है।
दो वर्ष के बाद भी कोषी के कहर की मार झेल अभी हजारों परिवार खानाबदोष जिन्दगी जीने को मजबूर हैं। कोषी के प्रलय ने अधिकांष लोगों के घर को उजाड़ दिया। दलित, महादलितों तथा गरीब के परिवार निर्वासित जिन्दगी गुजारने को मजबूर हैं। खेती की जमीन में बालू होने के कारण दैनिक मजदूरी करने वाले को जीवन चलाना दुभर बना हुआ है। महिला, बच्चे, गर्भवती महिला पौष्टिक भोजन से लगातार वंचित है और अत्यंत पिछड़ी जाति एवं अन्य गरीब परिवार अनेक प्रकार की बीमारी से ग्रसित होना पड़ा है। उन गाँवों में लोग अपने घरों को संवारने में लगे हैं। विस्थापन का दो वर्ष हुआ है। वे लोग जो बहुत ही गरीब हैं और राहत षिविरों में रह रहे थे, वे आवास और रोजगार के अभावों पलायन कर गये हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार उनकी संख्या 10 लाख हो सकता है। बाजारों से सड़क संपर्क सामान्य नहीं होने की वजह से तमाम दिक्कतें आ रही हैं। सरकार ने कोषी आपदा से भवनों, लोक संपतियों एवं आधारभूत संरचनाओं की हुई क्षति का आकलन विस्तृत रूप से अभीतक नहीं कराया है। आकलन के आधार पर पुनर्वास आवष्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। प्रत्येक गाँव स्तर का आकलन अलग-अलग टीम द्वारा कराकर ग्रामीण स्तर पर पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण योजना तैयार की जानी चाहिये। चार लाख से अधिक निजी मकानों, लोक संपतियों एवं अन्य आधारभूत संरचनाओं का पुनर्निर्माण किया जाना है। राज्य सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की आर्थिक योजनाओं को लागू किया जाना है। कारीगरों, उद्यमियों एवं स्वनियोजित व्यक्तियों को अधिकतम लाभ मिल सके। सभी इक्विपमेंट्स, ट्रांसमीषन लाईन तथा ट्रांसफार्मर की बदली करायी जाए ताकि स्टिम में सुधार लाया जा सके। ग्रामीण इलाकों में जलापूर्ति सिस्टम के पुनरूद्धार की कार्ययोजना तुरत ली जाए ताकि स्वस्थ एवं स्वच्छ जलापूर्ति क्षेत्र में लोगों को मिल सके। केन्द्र की राजीव गांधी पेयजल मिषन से विषेष अनुदान प्राप्त किया जा सकता है। इस बाढ़ का प्रभाव इतना व्यापक है कि केवल भूमिहीन तथा गरीब ही पीड़ित नहीं हैं बल्कि मध्यम, निम्न-मध्यम वर्ग एवं सुखी सम्पन्न किसान भी इस प्राकृतिक संकट से बुरी तरह प्रभावित है।
(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)
दिनांक 21 अगस्त, 2010 को इन्दिरा गांधी तारामण्डल सभागार में इन्डियन इन्सटीच्युट आॅफ मैनेजमेंट तथा इनफौरमेषन टेकनोलोजी, पटना द्वारा आयोजित राष्ट्रीय व्याख्यानमाला के अवसर पर
डा॰ जगन्नाथ मिश्र, पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री का सम्बोधन।

प्रबंधन विज्ञान के नए आयाम पर आयोजित इस व्याख्यानमाला में उपस्थित होने का निमंत्रण मिला, इस हेतु मैं संस्थान के निदेषक, डा॰ चक्रधर सिंह को धन्यवाद देता हूँ।
अमरीका के पेन्सीलवानिया विष्वविद्यालय में वर्ष 1883ई॰ में सर्वप्रथम प्रबंधन संस्थान की स्थापना हुई। तत्पष्चात हाड़वार्ड ग्रेजुएट स्कूल आॅफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेषन द्वारा एम॰बी॰ए॰ की षिक्षा प्रारंभ हुई। अमरीका के बाद यूरोप के प्रमुख देषों जैसे इंगलैंड, फ्रांस, स्वीटजरलैंड, इटली, जर्मनी आदि में व्यवसाय-प्रबंधन संस्थानों का उद्भव और विकास हुआ। 1980 ई॰ के दषक में व्यवसाय के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी एम॰बी॰ए॰ का अध्ययन प्रारंभ हुआ, जैसे डठ। भ्नउंद त्मेवनतबम डंदंहमउमदजए डठ। ज्मबीदवसवहल डंदंहमउमदजए डठ। ैजतंजमहपब डंदंहमउमदज आदि। साथ ही, दूर षिक्षा के क्षेत्र में भी एम॰बी॰ए॰ का प्रवेष हुआ। पिछले तीन दषकों में हम व्यवसाय प्रबंधन तथा इंजीनियरिंग, कानून, वस्तुकला आदि में मणिकांचन संयोग पाते हैं। अमरीका के प्रसिद्ध पेन्सीलवानिया विष्वविद्यालय में जिस प्रकार वर्ष 1883 ई॰ में सर्वप्रथम व्यवसाय प्रबंधन का अध्ययन प्रारंभ किया गया, इसी भांति मैंने बिहार में सर्वप्रथम व्यवसाय प्रबंधन का पाठ्यक्रम एम॰बी॰ए॰ स्तर का 1973 में प्रारंभ कराया था, मुजफ्फरपुर और तत्पष्चात पटना में। अखिल भारतीय तकनीकी षिक्षा परिषद् की स्वीकृति से एम॰बी॰ए॰ पाठ्यक्रम प्रारंभ कराया। पिछले कुछ दषकों में मैनेजमेंट की षिक्षा-दीक्षा में आमूल परिवर्तन ;ैमं ब्ींदहमद्ध हुए हैं। कम्प्यूटर आधारित मैनेजमेंट षिक्षा इस षताब्दी की देन है। मैनेजमेंट में कम्प्यूटर के अधिकाधिक प्रयोग से समय तथा क्षेत्र की दूरी न्यून हो गई है और संपूर्ण विष्व आज ळसवइंस क्तंूपदह त्ववउ हो गया है। मल्टीमीडिया भीडियो तकनीक आज मैनेजमेंट षिक्षा का अमोध अस्त्र है। कम्प्यूटर तकनीक का प्रयोग कम्पीटेन्सी मैपिंग में अधिक हो रहा है। ब्वउचमजमदबल च्तवपिसपदह भी कहते हैं। प्रबंधन विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर टेकनोलोजी का प्रभाग इंटरनेट के प्रचार-प्रसार से जोड़ा जा सकता है। इसके पाँच आयाम विषेष रूप से परिलक्षित होते हैं:- (क) ज्ञान। (ख) दक्षता। (ग) रूचि। (घ) गुण। (ड.) प्रवृति। व्यवसाय प्रबंधन से संबंधित निर्णयों में बहुर्राष्ट्रीय कंपनियाँ कम्प्यूटर टेकनोलोजी से अधिक लाभान्वित हैं। इस संदर्भ में म्गमबनजपअम डठ। अधिक महत्वपूर्ण सहायक हो रहा है।
20वीं सदी के उत्तरार्द्ध ने अनेकानेक सकारात्मक और नकारात्मक विकासों के लिये रास्ते निर्मित किये हैं। हम इससे इनकार नहीं कर सकते कि सकारात्मक विकास ने सामाजिक-आर्थिक परिवत्र्तन की प्रक्रिया में जान, षक्ति और निरंतरता पिरो दी, लेकिन साथ ही नकारात्मक विकास ने संकटपूर्ण समस्यायें भी उत्पन्न कर दीं, जिनसे वातावरण संबंध प्रदूषण, जल की अषुद्धता, सांस्कृतिक प्रदूषण, पारिवारिक बिखराव आदि के लिये भी मार्ग बना दिये गये। सही अर्थ में प्राकृतिक पर्यावरण इतना अधिक अस्थिर हो गया है कि नकारात्मक विकास समूह ने सकारात्मक विकास पर हावी होना षुरू कर दिया है। फलतः चीजों को पटरी पर लाने के लिये दृष्टिकोण-परिवत्र्तन की जरूरत हो जाती है। इसी पृष्ठभूमि में संसार भर के प्रबंधन-चिन्तकों ने प्रबंधन की धारणा और समझदारी दोनों में तुरत मौलिक परिवत्र्तन की अनुभूति कर ली। सम्मेलनों और सभाओं में प्रबंधन एक ठोस निर्णय के लिये विचार-विमर्ष षुरू हो गये हैं और इसके लिये प्रबंधनों की पवित्र अवधारणा विष्वसनीयता अर्जित कर लेती है। विष्व के चारों ओर प्रबंधन-विद्यालय अपने-अपने पाठ्यक्रमों में ढांचागत परिवत्र्तन करना षुरू करते रहे हैं ऐसे प्रबंधकों को विकसित करने के लिये जो सफलतापूर्वक तनाव का मुकाबला कर सकें। समान प्रकृति और मूल्यों ने निर्णय लेने की प्रक्रिया में कैटेलिटिक भूमिका निभाना षुरू कर दिया है। अगर विष्व के विभिन्न देषों में इस समान प्रकृति और मूल्यों की हो रही धारणा और बोधगम्यता की क्रिया की ओर अपनी-अपनी आँखें फेरें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने सांस्कृतिक प्रेरणा षक्ति को अलौकिक प्राथमिकता दे रखी है। अमेरिकावासियों द्वारा अपनी सांस्कृतिक प्रेरणा को सम्मुख रख अपेक्षित वजन कार्य संपादन में उत्कृष्टता को प्रदान किया जाता है; यूरोपवासियों द्वारा विष्वासपात्रता या भक्ति को उच्च प्राथमिकता दी जाती है और एषिया में जापानवासियों द्वारा राष्ट्रीय उत्कृष्टता को सर्वोपरि प्राथमिकता दी जाती है। हमलोग भारत के प्रसंग में भी एक षुरूआत पाते हैं; यहाँ मूल्य-प्रजनन-प्रक्रिया पर प्रकाष दिखता है।
सामने आती हुई प्रवृत्तियाँ और उभरते हुए विकास से यह ऐसे लोगों के स्वभाव और गुण सुनिष्चित होते हैं, सांगठनिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिये जैसे लोगों की हमें जरूरत होती है। दबाव की गहनता कोरपोरेट प्रबंधको की उत्कृष्टता सुनिष्चित करती है, क्योंकि सामना करने वाली बहुपक्षीय समस्यायें और चुनौतियाँ उनके (प्रबंधकों के) लिये तेजाबी जाँच ही सिद्ध होती हैं। 21वीं सदी के प्रबंधकों को अधिक तात्त्विक क्षमता की जरूरत होती है और इसके लिये व्यवहारमूलक (आचरणमूलक) और पर्यावरणमूलक अध्ययनों, जीवन-विज्ञान और मानव विज्ञान, समाजषास्त्र, नीतिषास्त्र, समान प्राकृतिक वैषिष्ट्य और मूल्य जैसे महत्वपूर्ण विषयों की प्राथमिकता से ध्यान देने की जरूरत, (की ओर) प्रबंधन के छात्रों को षिक्षण-प्रषिक्षण देते समय पड़ती है। आपदा प्रबंधन हेतु प्राथमिकता से ध्यान की जरूरत होती है, क्योंकि हम पाते हैं कि विष्व बहु-कोणीय प्राकृतिक और कृत्रिमता से निर्मित समस्याओं का सामना कर रहा है। एक ओर ‘कारपोरेट’ प्रबंधकों विकास की गति को दु्रत से दु्रततर करने की जरूरत है, तो दूसरी ओर उन्हें मूल्य-अभियंत्रण की प्रक्रिया को सुदृढ़ता प्रदान करने की भी जरूरत पड़ती है। इसके अतिरिक्त उन्हें यह भी सुनिष्चित करने की जरूरत होती है कि नीति संबंधी निर्णयों से प्राकृतिक पर्यावरण निम्नगामी नहीं होने वाला है।
पेषापरक ज्ञान विकास का रास्ता दुरूस्त करता है और इससे यह अनिवार्य हो जाता है कि प्रबंधकगण को विष्वस्तरीय पेषापरक उत्कृष्टता प्राप्त है। प्रबंधकों को क्रियात्मक क्षमता में वृद्धि लाने हेतु व्यक्तिस्तरीय या निजी वचनबद्धता की जरूरत होती है। साथ ही उन्हें समान प्राकृतिक वैषिष्टों और मूल्यों में वृद्धि लाने की निजी वचनबद्धता की भी जरूरत सकारात्मक विकासों को प्रोन्नत करने हेतु होती है। व्यापारिक और गैर-व्यापारिक दोनों ही संगठनों को अंतर्दृष्टि और उद्देष्य को इसलिये परिवत्र्तित करना ही है, ताकि औद्योगिक क्षेत्र के आमूल परिवत्र्तन के लाभ सामाजिक आमूल परिवत्र्तन की प्रक्रिया को क्रियाषील करने में कुंजी की सी भूमिका का निर्वहन कर सकें। काॅरपोरेट क्षेत्र विलम्ब से ही सही, भारत के संदर्भ में भी लोकप्रियता हासिल करता आ रहा है। औद्योगिक आमूल परिवत्र्तन की प्रक्रिया को दु्रत तो किया गया है, लेकिन औद्योगिक विकास के फायदे मुष्किल से समाज के कमजोर वर्गों द्वारा संचित किये जा सके हैं। पिछड़ापन विषाल सागर के चारों ओर समृद्ध लघु द्वीपों का विकास हमारे महान् अदिष्ट कार्य को संपादित करने के लिये कदापि नहीं है। यह इसे औचित्यपूर्ण करता है कि लाभदायी और गैर-लाभदायी संगठन और सरकार के विभाग मिलकर अपनी नीतियाँ विनिर्मित करें अपने कार्यक्रम निर्धारित करें- इन उभरते विकासों और आ रही प्रवृत्तियों के सामने। उन्हें प्रबंधन की पवित्रतामूलक अवधारणा को व्यवहार में उतारना है, ताकि मूल्य-आभियंत्रण तीव्र से तीव्र गति को प्राप्त करे। हमें ‘काॅरपोरेट’ संस्कृति को ऐसे रूप में विकसित-प्रोन्नत करने की जरूरत है जिससे सांगठनिक और सामाजिक हितों को एक न्यायसंगत समन्वय संभव हो सके या न्यायसंगत तारतम्य हो सके। गैर-सरकारी संगठनों को खासकर सामाजिक आमूल परिवत्र्तन की प्रक्रिया में कुंजी की-सी भूमिका निभाने की जरूरत है। श्रम-संगठनों को कार्य-संस्कृति को विकसित करना होगा, क्योंकि प्रचलित ढांचों और दृष्टिकोणों के साथ वाली ‘काॅरपोरेट’ संस्कृति से प्रत्याषा हम कर ही नहीं सकते हैं। धामिक संगठनों को प्रबंधन के सिद्धांतों की अवधारणा इसलिये बनाने की जरूरत है कि सामाजिक हितों का संरक्षण वे कर सकें। लगभग सभी कार्य-क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिक उद्धार की प्रक्रिया के साथ, गहरे प्रौद्योगिक ज्ञान को सूत्रबद्ध करना है। आविष्कार और नवीकरण को उच्च प्राथमिकता की आवष्यकता है। चूंकि अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक वातावरण अनेक-अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है, यह सार्थक है कि सभी संगठन क्रियामूलक क्षमता में षीघ्रातिषीघ्र अभिवृद्धि के रास्ते तैयार कर लें, अन्यथा कार्य-संस्कृति को समुन्नति सहित विकसित किया ही नहीं जा सकता है। ‘‘सफल प्रतियोगी बनो या विनष्ट हो जाओ’’ ही 21वीं सदी का नारा है।
विगत वर्षों में हमारे देष में प्रबंधन षिक्षा का पर्याप्त विस्तार हुआ है। इन वर्षों में प्रबंधन षिक्षा के दु्रत विकास के क्रम में यदा-कदा गुणवत्ता और स्तरीयता की अल्पता उत्पन्न हुई जिस कारण से मानव संसाधन की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। गुणवत्ता, प्रभाव एवं प्रासंगिकता ऐसे महत्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिनके माध्यम से समाज प्रबंधन षिक्षा की कामयाबी को मापता है। यू॰जी॰सी॰ के द्वारा आयोजित एक सर्वेक्षण से यह प्रकाष में आया है कि लगभग सभी सूचकों पर यथा निकाय के स्तर, पुस्तकालयीय सुविधायें, संगणक (कम्प्यूटर) की उपलब्धता, षिक्षक-छात्र का अनुपात आदि- प्रबंधन षिक्षा को यथाषीघ्र समुन्नत करना अत्यावष्यक है। आज यह जबरदस्त भावना हो गयी है कि विष्वविद्यालयों और काॅलेजों से प्रबंधन स्नातकोत्तर उत्तीर्ण की कुषलता जाॅब मार्केट की अपेक्षाओं से मेल नहीं खाती हैं, ये प्राप्त षिक्षा (डिग्री) के अनुपात में कत्र्तव्य पर खरे नहीं उतरते हैं। एक ओर तो हम षिक्षित बेरोजगारों की इतनी बड़ी संख्या नहीं चाहते और दूसरी ओर हमारे पास जो कार्य (जाॅब) हैं उनके लिये अनुकूल उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हैं। हमारे जैसे विकासषील देष में नियोजन की दृष्टि से अयोग्य प्रबंधन स्नातक बेकारी की समस्या से भी बड़ी समस्या प्रस्तुत कर देते हैं। आज के स्पर्धा भरे वातावरण की मांग है प्रबंधन षिक्षा की उत्कृष्टतर गुणवत्ता/ राष्ट्रीय एवं विष्व-बाजार में केवल वे ही संस्थायें प्रतियोगिता में आने की स्थिति में होंगी जो निरंतर गुणवत्तापूर्ण षिक्षा प्रदान करें। यह कहा जाता है कि गुणवत्ता नागरिकों की गुणवत्ता पर आश्रित होती है। और, नागरिकों की गुणवत्ता उनकी षिक्षा पर निर्भर करती है। ये बातें प्रबंधन षिक्षा के मामले में खासतौर से सच्ची पायी जाती हैं। राष्ट्रीय एवं विष्व बाजार की प्रतियोगिता में सफल होने के लिये यह अनिवार्य है कि हमारी प्रबंधन उच्च षिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता का सम्वर्द्धन किया जाय।
प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता सम्बर्द्धित करने हेतु किसी विष्वविद्यालय एवं स्वायत्त संस्थानों को वृहत् धनराषि की जरूरत होती है। षैक्षिक और भौतिक आधारभूत संरचना यथा कक्षाओं और प्रयोगषालाओं, पुस्तक भंडार को अद्यतन करना, पुस्तकालय में पत्रिका, संदर्भ सामग्री और षिक्षकों-षिक्षकेतर कर्मचारियों के वेतन-भुगतान आदि की गुणवत्ता संवर्द्धित करने हेतु हमें धनराषि की जरूरत है। हमें धनराषि तबतक नहीं प्राप्त होगी जबतक हम विष्वविद्यालय, सरकार एवं अन्य श्रोतों द्वारा किये गये व्यय की उपयोगिता उच्च स्तरीय गुणवत्ता के परिणाम स्वरूप नहीं सिद्ध करते हैं। एक ऐसे तंत्र को विकसित करना ही है जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता को निरंतर आकलित और संधारित करता रहे।
प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता और प्रासंगिकता से संबंधित एक दूसरा मुद्दा है जो प्रबंधन षिक्षा की आंतरिक और वाह्य उत्पादकता के बारे में है। वे, जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता से मतलब रखते हैं अपने मानकों, यथा अंक, प्रकाषन आदि का उपयोग कर इस पर (गुणवत्ता पर) मात्र आंतरिक परिप्रेक्ष्य से देखते रहे हैं। किन्तु उद्योग और अन्य आर्थिक क्षेत्र (सेक्टर) जिन्हें अपनी उत्पादन प्रणाली में छात्रों की जरूरत है, लब्धांक या प्राप्त प्रतिभा प्रमाणपत्रों से अधिक हैं; ये मूलतः प्राप्त ज्ञान और कुषलता से मतलब रखते हैं। ये लक्षित परिणाम उत्पादित करने हेतु कुछ क्रियाकलापों के संपादन में छात्रों को लगाना चाहते हैं। ये अपने व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य से, न कि छात्रों के षैक्षिक ज्ञान के आधार पर, गुणवत्ता को परखते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता दो भिन्न मार्गों से समझी जाती हैः-(1) संस्था के आंतरिक परिप्रेक्ष्य से और (2) उस बाजार के वाह्य परिप्रेक्ष्य से, जिसमें ये स्नातक/स्नातकोत्तर नियोजित किये जा सकेंगे। वे संस्थायें जो गुणवत्ता का आकलन अपने-अपने आंतरिक कार्य संचालन के आधार पर करती हैं, उद्योगजगत् द्वारा वांछित गुणवत्तापरक अर्हताओं को पूर्ण नहीं करती हैं। संस्थानों कालेजों और विष्वविद्यालयों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने हेतु प्रयुक्त षत्र्तों में ये बिन्दु सम्मिलित हैं- (अ) पाठ्यक्रम पहलू (आ) अध्यापन, सीखना और मूल्यांकन (इ) षोध, परामर्ष और प्रसार (ई) आधारभूत संरचना (उ) छात्र-साहाय्य (ऊ) संगठन और प्रबंधन (ए) स्वास्थ क्रियाकलाप। उपर्युक्त षर्तों का प्रयोग संस्थाओं की गुणवत्ता के आकलन में किया जाता है। दूसरी ओर उद्योगजगत् की अभिरूचि ऊपर वर्णित उस व्यक्ति में है, जो व्यक्ति वस्तुयें उत्पादित कर सकता है। इसलिये षिक्षा की गुणवत्ता या षिक्षा के मानक जो छात्रों से अपेक्षित हैं वे उद्योगतजगत् के अपने दायरे में हैं। अस्तु, ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वृहत्तर विचारण एवं चर्चा आवष्यक हैं।
किसी भी राष्ट्र के लिए यह हितकर नहीं होगा कि प्रबंधन षिक्षा के विस्तार को उपेक्षित किया जाय। लेकिन तकनीकी विकास के इस युग में गुणवत्ताविहीन प्रबंधन षिक्षा मजाक बनकर रह जाती है। सबों के लिए गुणवत्तापरक षिक्षा राष्ट्र के समक्ष एक साहसिक कार्यभार है। संविधान के प्राक्कथन में और मौलिक अधिकारों से संबद्ध भाग में ही अंकित है कि समानतापूर्वक जीने का अधिकार और सामाजिक न्याय के साथ जीने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है। यह अधिकार इस अधिकार की पूरी गारंटी है और इसका उच्च से उच्च अर्थ है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इस आधिकार की आधिकारिक व्याख्या की गई है; जिसका अर्थ है-सम्मान और समानतापूर्ण जीवन स्तर और अवसर जो जीने के अधिकार से संबंधित है। विषिष्ट षिक्षा से ही किसी राष्ट्र को अच्छे इंजीनियर, प्रबंधक, डाक्टर, व्यवसायी, अधिवक्ता, लेखा विषेषज्ञ, आचार्य (प्रोफेसर) तथा सभी क्षेत्रों से संबंधित कुषल तकनीकी कर्मियों की उपलब्धता सुनिष्चित की जा सकती है। अतः निष्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि विषिष्ट षिक्षा को विकसित करने में व्यय धनराषि अनुत्पादक निवेष नहीं है बल्कि दीर्घकालिक रूप में एक उत्पादक निवेष है।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

Tuesday, December 7, 2010

दिनांक 28 अगस्त, 2010 को आई॰आई॰बी॰एम॰ पटना के सभागार में ‘‘स्वतंत्रता सेनानी सम्मान’’ विषय पर डा॰ जगन्नाथ मिश्र, पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री का सम्बोधन।

भारत में सन् 1857 की क्रान्ति के बाद देषवासी अपनी मातृभूमि को विदेषी षासकों के चंगुल से आजाद कराने के लिए पूरी षक्ति से एकजुट होकर उठ खड़े हुए और फिर इस षताब्दी के प्रारंभ में बाल गंगाधर तिलक ने जब यह उद्घोष किया कि ‘‘स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है’’ तो देखते ही देखते पूरा देष वन्देमातरम्, भारत माता की जय और इंकलाब जिन्दाबाद के नारों से गूंज उठा। महात्मा गांधी के साथ पं॰ जवाहर लाल नेहरू, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल, जयप्रकाष नारायण, डाॅ॰ राम मनोहर लोहिया तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे अग्रणी नेताओं ने अंगे्रजों के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन डाण्डी मार्च, नमक सत्याग्रह तथा भारत छोड़ो आन्दोलन आदि का संचालन करके विदेषी षासकों को भारत छोड़ने के लिये विवष कर दिया। भारत को आजादी एक लम्बे संघर्ष के बाद प्राप्त हुई, जिसके लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन, विदेषी वस्त्रों का बहिष्कार, दाण्डी मार्च, नमक सत्याग्रह, भारत छोड़ो आन्दोलन तथा सम्पूर्ण स्वाधीनता के लिए ‘करो या मरो’ का अभियान चलाया गया। असंख्य ज्ञात एवं अज्ञात वीर क्रान्तिकारियों तथा महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने तन-मन-धन से स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय योगदान किया और अपने प्राणों तक की आहुति देने में भी गर्व का अनुभव किया। यह हमारे देष के वीर क्रान्तिकारियों के ही संघर्ष का प्रतिफल है कि हमें आजादी मिली।

मैनपुरी जनपद स्वाधीनता आन्दोलन में आगे रहा है। सन् 1857 के प्रथम राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में इस जनपद के चप्पे-चप्पे पर स्वातंत्रय योद्धाओं ने लड़ाई लड़ी थी। इस राष्ट्रीय जनक्रान्ति के नायक महाराणा तेज सिंह और इतिहास प्रसिद्ध मैनपुरी षडयंत्र के महान क्रान्तिकारी पं॰ गेंदालाल दीक्षित एवं उनके षिष्य अमर षहीद राम प्रसाद बिस्मिल की कर्मस्थली मैनपुरी की ही पावन धरती रही है। बेवर के षहीद छात्र कृष्ण कुमार, सीताराम गुप्ता और जमुना प्रसाद त्रिपाठी सबके लिए प्रेरणा स्रोत हैं, जिनके बलिदानों की स्मृति में यह प्रदर्षनी आयोजित की जाती रही है। बेवर की जनता वन्दनीय है, जिसने 14 अगस्त, 1942 को पुलिस थाने पर तिरंगा फहराकर कुछ समय के लिए इस नगरी को ब्रिटिष गुलामी से आजाद करा लिया था। यह भी एक सुखद संयोग है कि 15 अगस्त को यहां षहीदों का बलिदान हुआ था और उसी तिथि पर 1947 में हमने स्वतंत्रता प्राप्त की थी। हमें आपस में मिलकर षहीदों के सपने पूरे करने के लिए एकजुट होकर और हर तरह से पारस्परिक मतभेद भुलाकर अपनी आजादी और एकता को सुदृढ़ बनाये रखना है।

आजादी के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं॰ जवाहर लाल नेहरू के कुषल नेतृत्व में देष एवं प्रदेष के सर्वांगीण विकास का एक व्यापक अभियान षुरू हुआ। हमने पिछले लगभग 63 वर्षों में प्रत्येक क्षेत्र में ऐसी अभूतपूर्व प्रगति की है, जिसके लिए विकसित राष्ट्रों को 200 वर्षों तक का समय लगा था। यद्यपि हमने अनेक क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित किये हैं और षानदार उपलब्धियां अर्जित की हैं, किन्तु हमें अभी खामोष नहीं बैठना है और विकास कार्यक्रमों को गति देना है। तभी आदर्ष भारत के निर्माण का हमारा सपना साकार होगा। हमारे राष्ट्र के सामने आज भारी कठिनायां हैं। देष के अंदर से और विदेषी ताकतों की ओर से भी तरह-तरह की साजिषें राष्ट्रीय आजादी को सीमित कर देने तथा विकास को अवरुद्ध कर देने के उद्देष्य से की जा रही हैं, किन्तु इन सभी बाधाओं और दीवारों को तोड़कर हमें आगे बढ़ते जाना है। हमने सत्य-अहिंसा के रास्ते पर चलकर आजादी हासिल की थी। सांप्रदायिक सद्भाव और एकता से नई ऊर्जा उत्पन्न की थी। आज विकास के लिए फिर उसी ऊर्जा की आवष्यकता है। सांप्रदायिकता, जातिवाद, प्रांतीयता, क्षेत्रीयतावाद आदि देष की जनता को भ्रमित कर पतन और राष्ट्रीय विखंडन के गहरे अंधेरे कुएं में ढकेलने वाले ऐसे अभिषाप हैं, जिनसे हर हालत में हमें अपनी हिफाजत करनी होगी। विघटनकारी, आतंकवादी और समाज विरोधी षक्तियों से पूर्णतया सजग एवं सतर्क रहना होगा। तभी हम विकास के बारे में सोच सकते हैं। अगर हमने बिना संघर्ष किये इन ताकतों के सामने घुटने टेक दिये तो हमें विकास की बात भी भूल जाना चाहिये। धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर आज हिन्दू राष्ट्र, मुस्लिम राष्ट्र, सिक्ख राष्ट्र और ईसाई राष्ट्र आदि के नारे बुलंद करने के कुत्सित प्रयास हो रहे हैं। हमें देष को इस जहरीली विचारधारा से बचाना है और पूरी तरह चैकन्ना रहना है। इस जहर के कारण राष्ट्रपिता बापू, इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे महान नेताओं की हत्याएं हुईं। देष का बंटवारा हुआ तथा लाखों लोग विस्तापित हुए। हजारों मासूम नर-नारियों की हत्यायें हुईं, खालिस्तान का नारा उठा और कष्मीर को भारत से अलग करने की साजिषें रची गयीं। यह संतोष की बात है कि भारत की जनता ने सभी साजिषों और विजातीय प्रवृत्तियों का दलगत भेदभाव से उपर उठकर एकताबद्ध हो मुकाबला किया है और देष की स्वतंत्रता, एकता और अखण्डता को बनाये रखा। किसी भी देष की स्वाधीनता उसके सर्वांगीण विकास से ही सुदृढ़ हो सकती है। आज हमारे विकास का प्रष्न सर्वाधिक महत्व का प्रष्न बन गया है। पिछले कुछ वर्षों में बिहार में विकास के काम की उपेक्षा हुई।

प्रसन्नता की बात है कि हमारी नई सरकार इस दिषा में पूरी षक्ति से कृत संकल्प है। सामाजिक न्याय और समता की धारणा को अमली जामा पहनाने का प्रयत्न किया जा रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि स्वराज्य का अर्थ है देष के लाखों गांवों में बसने वाले नर-नारियों का चैमुखी विकास। सरकार गांवों के विकास पर प्राथमिकता से ध्यान केन्द्रित कर बापू का सपना पूरा करने की ओर बढ़ रही है, ताकि समता और समानता पर आधारित आदर्ष समाज की स्थापना हो सके।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)
दिनांक 18 एवं 19 सितम्बर, 2010 को पटना में ‘‘न्याय के लिए राष्ट्रीय दलित आन्दोलन’’ के तत्वावधान में राज्य स्तरीय अधिवक्ता विमर्ष के अवसर पर
डा॰ जगन्नाथ मिश्र का सम्बोधन।




भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता एवं समानता को सुनिष्चित किया गया है। अनुच्छेद 15 में स्पष्ट रुप से कहा गया है कि राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिग, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं बरतेगी। अनुच्छेद 14 में ‘विधि के सामने समानता’ और ‘कानून का समान रुप से संरक्षण’ सुनिष्चित किया गया है। मौलिक अधिकारों को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है। स्वतंत्र न्यायपालिका ने इन अधिकारों को तत्वपूर्ण बना दिया है। भारतीय संविधान के नीति निर्देषक तत्व के अंतर्गत राज्य को समानता स्थापित करने के लिए सकारात्मक पहल के लिए निर्देष दिया गया है। इस संदर्भ में अनुच्छेद 46 उल्लेखनीय है। इसमें कमजोर वर्ग के लोगों, विषेषकर अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों को सामाजिक अन्याय और षोषण के विरुद्ध संरक्षण देने की बात कही गयी है। भारत में रंग, नस्ल और धर्म के आधार पर भेदभाव की समस्या मोटे तौर पर नहीं रही है। भारत का संविधान समानता की भावना से प्रेरित एक गणतांत्रिक दस्तावेज है। इसमें समानता, न्याय और स्वतंत्रता जैसे गणतांत्रिक मूल्य संजोए हुए हैं। इसका मूल उद्देष्य समाज में व्याप्त हर प्रकार के भेदभाव को मिटाना है, क्योंकि केवल भेदभाव रहित सामाजिक व्यवस्था में ही स्वतंत्रता को महफूज किया जा सकता है। व्यक्ति अधिकार तथा समष्टि के अधिकार के बीच में तालमेल बिठाना भारतीय संविधान की प्रमुख उपलब्धि है। संविधान के मौलिक अधिकारों में इन दोनों प्रकार के अधिकारों का उल्लेख है। व्यक्तिगत अधिकार सभी नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रुप में दिए गये हैं। उसी प्रकार समष्टिगत अधिकार धार्मिक-अल्पसंख्यकों और कुछ इसी तरह के अन्य कई अधिकार अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग को दिये गये हैं। इस प्रकार हमारा संविधान बुद्धिमता के साथ व्यक्ति के मोल को और उसके समुदाय के मोल को जोड़कर देखता है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार तथा राज्य के नीति-निर्देषक तत्व नागरिकों को समान अधिकार का उपभोग करने का अवसर देते हैं। संविधान के अनुच्छेद 16(1) तथा 16(2) नागरिकों को उनके वर्ण, जाति, लिंग तथा धर्म के आधार पर भेदभाव किये बिना समान अवसर का आष्वासन देते हैं। इसके अलावा संविधान भारतीय राज्य को सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में हस्तक्षेप द्वारा समानता प्रतिष्ठित करने का दिषा-दर्षन देता है। संविधान न केवल जाति, आस्था, समुदाय और भाषा के समान व्यवहार के लिए प्रावधान बनाता है, बल्कि यह भी सुनिष्चित करता है कि वह क्रियान्वित हो। नागरिकों का हित साधना ही संविधान का ध्येय है। संविधान इन मूल्यों के क्रियान्वयन के लिए ‘सकारात्मक कार्रवाई’ कर सकता है, जिससे एक समानता के धरातल का निर्माण हो सके। संविधान का ध्येय तथा समय-समय पर न्यायपालिका द्वारा अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों के संबंध में सुनाए गये निर्णय इस बात का प्रमाण है कि एक विषमतारहित समाज-व्यवस्था का निर्माण करना भारतीय गणराज्य का उद्देष्य है। भारतीय संविधान एक समतावादी समाज के लिए प्रतिबद्ध है। यह सरकार को प्रचलित विषमताओं के निराकरण हेतु विभिन्न उपायों से सक्षम बनाता है। इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय तरीका ‘‘सकारात्मक पक्षपात’’ है। सकारात्मक पक्षपात का अर्थ होता है सामाजिक तथा आर्थिक रुप से कमजोर और वंचित वर्गों को षिक्षा तथा रोजगार के क्षेत्र में विषेषाधिकार देना। ‘‘सकारात्मक पक्षपात’’ के पीछे मंषा स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक वर्षों में समाज के वंचित वर्गों को दूसरों के बराबर लाने की थी। इसका जोर षिक्षा, रोजगार तथा स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने के लिए उनके रास्ते के रोड़ों को हटाना था। ऐसे प्रावधानों की चर्चा संविधान सभा में हुई और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा कुछ विषेष वर्गों को सकारात्मक पक्षपात की सुविधा दी गई।

मानवाधिकार आयोग ने पिछले दिनों अनुसूचित जातियों पर हो रहे अत्याचारों और इन्हें रोकने के लिए बने कानूनों के हस्र के बारे में एक रिपोर्ट जारी की है। ‘‘रिपोर्ट आॅन प्रिवेंषन आॅफ एट्रोसिटीज अगेंस्ट षेडयूल्ड कास्टस’’ नामक इस दस्तावेज से आजाद भारत में भी अनुसूचित जातियों की जारी दुर्गति साफतौर पर उभरकर आती है। इस बात का विषेष महत्व है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी एक प्रमुख संवैधानिक संस्था की रिपोर्ट हमारे सभ्य समाज व लोकतांत्रिक राज की असलियत से हमें रू-ब-रू कराती है। इस रिपोर्ट की प्रस्तावना में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीष और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति ए॰एस॰ आनन्द कहते हैं- ‘संविधान में पर्याप्त प्रावधानों और अन्य कानूनों के बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि सामाजिक अन्याय और अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य कमजोर तबकों का षोषण जारी है। भारत द्वारा अपने को एक गणतंत्र घोषित करने की आधी सदी से अधिक के बाद भी सामान्यतः तमाम अनुसूचित जातियों के लोगों एवं खासकर दलितों को जिस अपमान से गुजरना पड़ता है, वह एक षर्म की बात है।’ रिपोर्ट में इस ‘षर्म की बात’ के कारणों की षिनाख्त की कोषिष की गयी है। इसके फलस्वरूप समाज, प्रषासन एवं षासन सब कठघरे में खड़े दिखायी देते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की यह रिपोर्ट आंकड़ों के आधार पर पूरे देष में दलितों की प्रताड़ना एवं पीड़ा को व्यापकता एवं गहराई से प्रस्तुत करती है। इसमें बताया गया है कि दलितों के नागरिक अधिकारों की रक्षा और उनके विरूद्व अत्याचारों को रोकने के लिए बने कानूनों के तहत सबसे अधिक मामले बिहार एवं उŸार प्रदेष में दर्ज हुए हैं। इसकी बुनियादी वजह यह है कि दूसरे राज्यों की तुलना में बिहार एवं उŸार प्रदेष में अनुसूचित जातियों की आबादी कहीं ज्यादा है। बिहार एवं उŸार प्रदेष के अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेष, गुजरात, आंध्र प्रदेष और तमिलनाडु ऐसे अन्य राज्य हैं, जहाॅं अनुसूचित जातियों पर अधिक जुल्म हुए हैं। इस रिपोर्ट की असली ताकत इन अत्याचारों के पीछे के कारणों की पहचान के प्रयास में निहित है। इसमें साफतौर पर रेखांकित किया गया है कि हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था से उपजा सोच इसकी एक प्रमुख वजह है। दूसरी बात यह है कि ग्रामीण इलाकों में भूमि से जुड़े मामले दलितों पर अत्याचार का एक बड़ा कारण हैं। भूमि सुधारों की विफलता से अनुसूचित जातियों को वह आर्थिक सुधार नहीं मिल सका, जो उन्हें सामाजिक संरचना की काट में मददगार बनाता।

रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि सुधारों को लागू करने के कुछ मामलों एवं कुछ राज्यों को छोड़कर कहीं सफलता नहीं दिखाई पड़ती। भूमि सुधारों का क्रियान्वयन राजनीतिक इच्छाषक्ति एवं नौकरषाहों में प्रतिबद्धता की कमी, कानूनों में मौजूद खामियों, भूस्वामियों की दांव-पेंच की व्यापक क्षमता, गरीबों के बीच संगठन के अभाव और अदालतों की अत्यधिक दखलंदाजी की भेंट चढ़ गया। वितरण के लिए बहुत कम अतिरिक्त जमीन भूस्वामियों से प्राप्त की जा सकी। इस निराषाजनक स्थिति में यह षायद ही संभव था कि भूमि सुधारों का कुछ ठोस लाभ अनुसूचित जातियों को मिल पाये। इस तरह दलितों को उनकी कमजोर स्थिति एवं बेचारगी से उबारने के एक कारगर उपाय को भी बढ़ाया नहीं जा सका। इस स्थिति ने दलितों को कई जगहों पर एक नयी तरह की राजनीतिक पहलकदमी से जुड़ने को मजबूर कर दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ ऐसे ही अवसर आते हैं, जब कोई दलित व्यक्ति किसी राज्य के मुख्यमंत्री की गद्दी तक जा पहुँचता है, पर वह भी सामाजिक संरचना एवं राजनीतिक समीकरण के दबाव में अपने समुदाय के हित में कोई मजबूत व असरदार निर्णय नहीं ले पाता। ऐसे माहौल में कई बार दलित जातियां अपने सम्मान एवं भूमि सुधारों की खातिर रैडिकल वामपंथी आन्दोलनों से भी जुड़ी है। सामंती तत्वों के लिए यह स्थिति बर्दाष्त से बाहर साबित हुई है। इसके जबाव में इनकी निजी सेनाओं ने आगजनी, बलात्कार एवं सामूहिक कत्लेआम जैसे बर्वर जुल्म दलितों पर ढाये हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘अनुसूचित जाति की औरतों पर अत्याचारों की सबसे कड़ी मार पड़ती है। अनुसूचित जाति की औरतों के साथ हुए बलात्कार की गिनती बढ़ती गयी है। सामन्ती जाति से संबंधित निजी सेनाओं द्वारा बलात्कार का इस्तेमाल पूरे समुदाय के मनोबल को तोड़ने के लिए एक हथियार के रूप में होता है।’ औरतें प्रभुत्वषाली जातियों के गुस्से का निषाना बन जाती हैं। औरतों को छोटे-मोटे झगड़ों के मामले में भी लोगों द्वारा नंगा करके घुमाने जैसी कई अन्य तरह की जिल्लतों से गुजरना पड़ता है। औरतों को धर्म के नाम पर देवदासी जैसी सबसे घृणित वेष्यावृत्ति प्रथा में ढकेल दिया जाता है, जिसमें अधिकतर अछूत जातियों की 6 से 8 वर्ष की लड़कियां भगवान को समर्पित कर दी जाती हैं। ये षादी नहीं कर सकती हैं और मंदिर के पुजारी व अन्य प्रभुत्व वाली जाति के लोग इनके साथ बलात्कार करते हैं। आखिर में इन लड़कियों को षहरी चकलाघरों में बेच दिया जाता है।

रिपोर्ट बताती है कि निजी सेनाओं द्वारा या अन्य रूपों में ढाये गये जुल्मों में राज्य, अनुसूचित जातियों के बदले अत्याचारों के पक्ष में खड़ा नजर आया है। इसका कारण नौकरषाही सहित सारी राज्य मषीनरी एवं सामाजिक संरचना में व्याप्त पक्षपात है। ऐसा लगता है कि पर्याप्त संवैधानिक प्रावधान, लोकतांत्रिक प्रक्रिया, विकास, जागृति एवं षिक्षा के उदारचेता प्रभावित नागर समाज (सिविल सोसाइटी) को रूपांतरित करने में सफल नहीं हो सके हैं। दुखद तथ्य यह भी है कि इस तथाकथित सभ्य समाज की नयी पीढ़ी भी वर्णवाद सोच से उबर नहीं पायी है। इन सारी चीजों का राज्य मषीनरी की संरचना एवं उसके व्यवहार पर खासा असर होता है। रिपोर्ट में इन बातों पर गंभीरता एवं तनिक विस्तार से चर्चा की गयी है। कहा गया है कि इन स्थितियों में राजनीतिक स्तर पर भी ईमानदारी की कमी है और अनुसूचित जातियों की स्थिति के प्रति एक गहरी उदासीनता है। इस माहौल में समझना मुष्किल नहीं है कि दलितों पर जुल्म ढानेवाले लोग कैसे बच निकलते हैं और कानून धरा का धरा रह जाता है। बहरहाल दलितों, आदिवासियों के प्रति गहरी संवेदनषीलता के लिए चर्चित रहे अवकाष प्राप्त आइएएस अधिकारी केबी सक्सेना द्वारा तैयार की गयी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की यह रिपोर्ट सरकारी भाषा की उलझन से परे दो टूक षब्दों में बातों को रखती है। अनुसूचित जातियों के पक्ष के बने कानूनों के बेअसर रहने के कारणों की ओर इषारा करते हुए यह रिपोर्ट स्पष्ट तौर पर बयान करती है। विभिन्न अनुसूचित जाति संगठनों और मानवाधिकार संस्थानों द्वारा अत्यंत जतन से तैयार की गयी रिपोर्ट कानून लागू करनेवाले तंत्र-पुलिस, प्रषासन और न्यायपालिका, खासकर पुलिस में व्याप्त पक्षपातपूर्ण रवैये को बेनकाब कर देती है। पक्षपात नहीं तो एक उदासीनता राहत वितरण और पुनर्वास जैसे गैर-विवादित मामलों में जरूर दिखाई पड़ती है। अनुसूचित जातियों पर हिंसा रोकने के मामले में नौकरषाही का पक्षपात सामाजिक एवं आर्थिक कानूनों को लागू करने के संदर्भ में भी खुलकर सामने आ जाता है। यहाॅं नौकरषाही ही अपराधी है, जिसका नजरिया और व्यवहार तमाम स्तरों पर क्रियान्वयन की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। कुल मिलाकर रिपोर्ट के तथ्यों एवं विष्लेषण से स्पष्ट होता है कि सदियों से आर्थिक और सामाजिक रूप से हाषिये पर जी रहे दलितों के प्रति समाज के प्रभुत्वषाली वर्गो के नजरिया, लोकतंत्र, समता और न्याय आदि के तमाम ढोल-बाजे के बावजूद नहीं बदला है। यह सुनना अत्यन्त कष्टदायक लग सकता है। पर दलितों के मामले में क्या अगड़ा, क्या पिछड़ा सब के सब एक हैं। आज भी असल प्रष्न यही है कि दलित लोग मनुष्य हैं या नहीं? तथाकथित भूमंडलीकरण के इस दौर में यह पूछना कितना ही दारूण क्यों न हो, पर इसी आईने में हम अपने तथाकथित महान देष की असली सूरत देख सकते हैं।

देष के कोने-कोने में दलित आज भी भीषण पीड़ा और प्रताड़ना की जिन्दगीे झेल रहे हैं और हमारा सभ्य समाज बेखबर अपने विकास का गुणगान किये जा रहा है। दलित तबका इस विकास में षिरकत का महज स्वप्न भी देखने की जुर्रत करे, तो उसे बेइंतहां जुल्म के चक्के और तेजी से रौंदने लगते हैं, पर राष्ट्र-राज्य को एक लोकतंत्र के रूप में यदि बने रहना और बढ़ना है, तो इस भीषण सामाजिक, आर्थिक गैर-बराबरी और अन्याय से निजात पाना ही होगा। मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट इस दिषा में अनेक सिफारिषें भी पेष करती है। सारांषतः अनुसूचित जातियों को जारी त्रासदी से मुक्त कराने के लिए उनके संरक्षण के लिए बने विभिन्न कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने और दोषियों को दंड देने के साथ-साथ सामाजिक संरचना एवं सोच में व्यापक परिवर्तन की भी जरूरत है। कहना न होगा कि इसमें राज्य, समाज और स्वयं अनुसूचित जातियों की अपनी-अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। संयुक्त राष्ट्र की विष्व सामाजिक स्थिति रिपोर्ट ने 2010 केन्द्र एवं राज्य सरकारों के दलितों एवं आदिवासी की कल्याणकारी योजनाओं के उनके तक पहुँचाने का उजागर किया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में दलित और विषेषकर दलित परिवार की महिलाएं संविधान के बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने सभी सरकारों एवं सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की पोल खोल दी है, जो दलित एवं आदिवासी कल्याण के लिए हजारों करोड़ खर्च के दावे करते रहे हैं। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों की योजनाओं का बहुत बड़ा हिस्सा उन तक पहुँच नहीं पाता, जो इसके हकदार हैं। भारतीय संविधान ने दलितों एवं आदिवासी को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए अनेक प्रावधान किये हैं। भारत की समस्याओं के निदान के लिए वे ही समाधान उपयुक्त हैं जो भारतीय परिस्थितियों और जीवन पद्धतियों के अनुसार हों। राष्ट्रीय मानवाधिकार को सार्वजनिक तथा निजी संस्थानों में भेदभाव/पक्षपात को समाप्त करने के लिए सषक्त करना पड़ेगा। यह सिद्धांत भी उचित प्रतीत होता है कि जाति, धर्म-मत-पंथ, लिंग तथा जन्म स्थान पर आधारित भेदभाव मानवाधिकारों के उल्लंघन का ही अंष है। मानवाधिकार एवं समानता दोनों एक दूसरे से जुड़े पक्ष हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में दलित महिलाओं की स्थिति पर विषेष रुप से चिंता बतायी गई है। अधिकांष दलित अषिक्षित महिलायें उत्पीड़न सहने पर मजबूर हैं। सरकारी आरक्षण का प्रावधान एवं कल्याणकारी योजनाएं इनके लिए कोई मायने नहीं रख्ती। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मद्देनजर केन्द्र और राज्य सरकारों को दलित समाज के लिए चलाये जा रहे विभिन्न परियोजनाओं पर उनका अधिकार स्थापित करना पड़ेगा।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)
भारत में दलित उत्पीड़न - 21 सितम्बर, 2010

- डा॰ जगन्नाथ मिश्र

भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता एवं समानता को सुनिष्चित किया गया है। अनुच्छेद 15 में स्पष्ट रुप से कहा गया है कि राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिग, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं बरतेगी। अनुच्छेद 14 में ‘विधि के सामने समानता’ और ‘कानून का समान रुप से संरक्षण’ सुनिष्चित किया गया है। मौलिक अधिकारों को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है। स्वतंत्र न्यायपालिका ने इन अधिकारों को तत्वपूर्ण बना दिया है। भारतीय संविधान के नीति निर्देषक तत्व के अंतर्गत राज्य को समानता स्थापित करने के लिए सकारात्मक पहल के लिए निर्देष दिया गया है। इस संदर्भ में अनुच्छेद 46 उल्लेखनीय है। इसमें कमजोर वर्ग के लोगों, विषेषकर अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों को सामाजिक अन्याय और षोषण के विरुद्ध संरक्षण देने की बात कही गयी है। भारत में रंग, नस्ल और धर्म के आधार पर भेदभाव की समस्या मोटे तौर पर नहीं रही है। भारत का संविधान समानता की भावना से प्रेरित एक गणतांत्रिक दस्तावेज है। इसमें समानता, न्याय और स्वतंत्रता जैसे गणतांत्रिक मूल्य संजोए हुए हैं। इसका मूल उद्देष्य समाज में व्याप्त हर प्रकार के भेदभाव को मिटाना है, क्योंकि केवल भेदभाव रहित सामाजिक व्यवस्था में ही स्वतंत्रता को महफूज किया जा सकता है। व्यक्ति अधिकार तथा समष्टि के अधिकार के बीच में तालमेल बिठाना भारतीय संविधान की प्रमुख उपलब्धि है। संविधान के मौलिक अधिकारों में इन दोनों प्रकार के अधिकारों का उल्लेख है। व्यक्तिगत अधिकार सभी नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रुप में दिए गये हैं। उसी प्रकार समष्टिगत अधिकार धार्मिक-अल्पसंख्यकों और कुछ इसी तरह के अन्य कई अधिकार अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग को दिये गये हैं। इस प्रकार हमारा संविधान बुद्धिमता के साथ व्यक्ति के मोल को और उसके समुदाय के मोल को जोड़कर देखता है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार तथा राज्य के नीति-निर्देषक तत्व नागरिकों को समान अधिकार का उपभोग करने का अवसर देते हैं। संविधान के अनुच्छेद 16(1) तथा 16(2) नागरिकों को उनके वर्ण, जाति, लिंग तथा धर्म के आधार पर भेदभाव किये बिना समान अवसर का आष्वासन देते हैं। इसके अलावा संविधान भारतीय राज्य को सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में हस्तक्षेप द्वारा समानता प्रतिष्ठित करने का दिषा-दर्षन देता है। संविधान न केवल जाति, आस्था, समुदाय और भाषा के समान व्यवहार के लिए प्रावधान बनाता है, बल्कि यह भी सुनिष्चित करता है कि वह क्रियान्वित हो। नागरिकों का हित साधना ही संविधान का ध्येय है। संविधान इन मूल्यों के क्रियान्वयन के लिए ‘सकारात्मक कार्रवाई’ कर सकता है, जिससे एक समानता के धरातल का निर्माण हो सके। संविधान का ध्येय तथा समय-समय पर न्यायपालिका द्वारा अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों के संबंध में सुनाए गये निर्णय इस बात का प्रमाण है कि एक विषमतारहित समाज-व्यवस्था का निर्माण करना भारतीय गणराज्य का उद्देष्य है। भारतीय संविधान एक समतावादी समाज के लिए प्रतिबद्ध है। यह सरकार को प्रचलित विषमताओं के निराकरण हेतु विभिन्न उपायों से सक्षम बनाता है। इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय तरीका ‘‘सकारात्मक पक्षपात’’ है। सकारात्मक पक्षपात का अर्थ होता है सामाजिक तथा आर्थिक रुप से कमजोर और वंचित वर्गों को षिक्षा तथा रोजगार के क्षेत्र में विषेषाधिकार देना। ‘‘सकारात्मक पक्षपात’’ के पीछे मंषा स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक वर्षों में समाज के वंचित वर्गों को दूसरों के बराबर लाने की थी। इसका जोर षिक्षा, रोजगार तथा स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने के लिए उनके रास्ते के रोड़ों को हटाना था। ऐसे प्रावधानों की चर्चा संविधान सभा में हुई और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा कुछ विषेष वर्गों को सकारात्मक पक्षपात की सुविधा दी गई।

मानवाधिकार आयोग ने पिछले दिनों अनुसूचित जातियों पर हो रहे अत्याचारों और इन्हें रोकने के लिए बने कानूनों के हस्र के बारे में एक रिपोर्ट जारी की है। ‘‘रिपोर्ट आॅन प्रिवेंषन आॅफ एट्रोसिटीज अगेंस्ट षेडयूल्ड कास्टस’’नामक इस दस्तावेज से आजाद भारत में भी अनुसूचित जातियों की जारी दुर्गति साफतौर पर उभरकर आती है। इस बात का विषेष महत्व है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी एक प्रमुख संवैधानिक संस्था की रिपोर्ट हमारे सभ्य समाज व लोकतांत्रिक राज की असलियत से हमें रू-ब-रू कराती है। ‘संविधान में पर्याप्त प्रावधानों और अन्य कानूनों के बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि सामाजिक अन्याय और अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य कमजोर तबकों का षोषण जारी है। भारत द्वारा अपने को एक गणतंत्र घोषित करने की आधी सदी से अधिक के बाद भी सामान्यतः तमाम अनुसूचित जातियों के लोगों एवं खासकर दलितों को जिस अपमान से गुजरना पड़ता है, वह एक षर्म की बात है।’ रिपोर्ट में इस ‘षर्म की बात’ के कारणों की षिनाख्त की कोषिष की गयी है। इसके फलस्वरूप समाज, प्रषासन एवं षासन सब कठघरे में खड़े दिखायी देते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की यह रिपोर्ट आंकड़ों के आधार पर पूरे देष में दलितों की प्रताड़ना एवं पीड़ा को व्यापकता एवं गहराई से प्रस्तुत करती है। इसमें बताया गया है कि दलितों के नागरिक अधिकारों की रक्षा और उनके विरूद्व अत्याचारों को रोकने के लिए बने कानूनों के तहत सबसे अधिक मामले बिहार एवं उŸार प्रदेष में दर्ज हुए हैं। इसकी बुनियादी वजह यह है कि दूसरे राज्यों की तुलना में बिहार एवं उŸार प्रदेष में अनुसूचित जातियों की आबादी कहीं ज्यादा है। बिहार एवं उŸार प्रदेष के अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेष, गुजरात, आंध्र प्रदेष और तमिलनाडु ऐसे अन्य राज्य हैं, जहाॅं अनुसूचित जातियों पर अधिक जुल्म हुए हैं। इस रिपोर्ट की असली ताकत इन अत्याचारों के पीछे के कारणों की पहचान के प्रयास में निहित है। इसमें साफतौर पर रेखांकित किया गया है कि हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था से उपजा सोच इसकी एक प्रमुख वजह है। दूसरी बात यह है कि ग्रामीण इलाकों में भूमि से जुड़े मामले दलितों पर अत्याचार का एक बड़ा कारण हैं। भूमि सुधारों की विफलता से अनुसूचित जातियों को वह आर्थिक सुधार नहीं मिल सका, जो उन्हें सामाजिक संरचना की काट में मददगार बनाता।

रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि सुधारों को लागू करने के कुछ मामलों एवं कुछ राज्यों को छोड़कर कहीं सफलता नहीं दिखाई पड़ती। भूमि सुधारों का क्रियान्वयन राजनीतिक इच्छाषक्ति एवं नौकरषाहों में प्रतिबद्धता की कमी, कानूनों में मौजूद खामियों, भूस्वामियों की दांव-पेंच की व्यापक क्षमता, गरीबों के बीच संगठन के अभाव और अदालतों की अत्यधिक दखलंदाजी की भेंट चढ़ गया। वितरण के लिए बहुत कम अतिरिक्त जमीन भूस्वामियों से प्राप्त की जा सकी। इस निराषाजनक स्थिति में यह षायद ही संभव था कि भूमि सुधारों का कुछ ठोस लाभ अनुसूचित जातियों को मिल पाये। इस तरह दलितों को उनकी कमजोर स्थिति एवं बेचारगी से उबारने के एक कारगर उपाय को भी बढ़ाया नहीं जा सका। इस स्थिति ने दलितों को कई जगहों पर एक नयी तरह की राजनीतिक पहलकदमी से जुड़ने को मजबूर कर दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ ऐसे ही अवसर आते हैं, जब कोई दलित व्यक्ति किसी राज्य के मुख्यमंत्री की गद्दी तक जा पहुँचता है, पर वह भी सामाजिक संरचना एवं राजनीतिक समीकरण के दबाव में अपने समुदाय के हित में कोई मजबूत व असरदार निर्णय नहीं ले पाता। ऐसे माहौल में कई बार दलित जातियां अपने सम्मान एवं भूमि सुधारों की खातिर रैडिकल वामपंथी आन्दोलनों से भी जुड़ी है। सामंती तत्वों के लिए यह स्थिति बर्दाष्त से बाहर साबित हुई है। इसके जबाव में इनकी निजी सेनाओं ने आगजनी, बलात्कार एवं सामूहिक कत्लेआम जैसे बर्वर जुल्म दलितों पर ढाये हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘अनुसूचित जाति की औरतों पर अत्याचारों की सबसे कड़ी मार पड़ती है। अनुसूचित जाति की औरतों के साथ हुए बलात्कार की गिनती बढ़ती गयी है। सामन्ती जाति से संबंधित निजी सेनाओं द्वारा बलात्कार का इस्तेमाल पूरे समुदाय के मनोबल को तोड़ने के लिए एक हथियार के रूप में होता है।’औरतें प्रभुत्वषाली जातियों के गुस्से का निषाना बन जाती हैं। औरतों को छोटे-मोटे झगड़ों के मामले में भी लोगों द्वारा नंगा करके घुमाने जैसी कई अन्य तरह की जिल्लतों से गुजरना पड़ता है। औरतों को धर्म के नाम पर देवदासी जैसी सबसे घृणित वेष्यावृत्ति प्रथा में ढकेल दिया जाता है,जिसमें अधिकतर अछूत जातियों की 6 से 8 वर्ष की लड़कियां भगवान को समर्पित कर दी जाती हैं। ये षादी नहीं कर सकती हैं और मंदिर के पुजारी व अन्य प्रभुत्व वाली जाति के लोग इनके साथ बलात्कार करते हैं। आखिर में इन लड़कियों को षहरी चकलाघरों में बेच दिया जाता है।

रिपोर्ट बताती है कि निजी सेनाओं द्वारा या अन्य रूपों में ढाये गये जुल्मों में राज्य,अनुसूचित जातियों के बदले अत्याचारों के पक्ष में खड़ा नजर आया है। इसका कारण नौकरषाही सहित सारी राज्य मषीनरी एवं सामाजिक संरचना में व्याप्त पक्षपात है। ऐसा लगता है कि पर्याप्त संवैधानिक प्रावधान, लोकतांत्रिक प्रक्रिया, विकास, जागृति एवं षिक्षा के उदारचेता प्रभावित नागर समाज (सिविल सोसाइटी) को रूपांतरित करने में सफल नहीं हो सके हैं। दुखद तथ्य यह भी है कि इस तथाकथित सभ्य समाज की नयी पीढ़ी भी वर्णवाद सोच से उबर नहीं पायी है। इन सारी चीजों का राज्य मषीनरी की संरचना एवं उसके व्यवहार पर खासा असर होता है। रिपोर्ट में इन बातों पर गंभीरता एवं तनिक विस्तार से चर्चा की गयी है। कहा गया है कि इन स्थितियों में राजनीतिक स्तर पर भी ईमानदारी की कमी है और अनुसूचित जातियों की स्थिति के प्रति एक गहरी उदासीनता है। इस माहौल में समझना मुष्किल नहीं है कि दलितों पर जुल्म ढानेवाले लोग कैसे बच निकलते हैं और कानून धरा का धरा रह जाता है। बहरहाल दलितों, आदिवासियों के प्रति गहरी संवेदनषीलता के लिए चर्चित रहे अवकाष प्राप्त आइएएस अधिकारी केबी सक्सेना द्वारा तैयार की गयी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की यह रिपोर्ट सरकारी भाषा की उलझन से परे दो टूक षब्दों में बातों को रखती है। अनुसूचित जातियों के पक्ष के बने कानूनों के बेअसर रहने के कारणों की ओर इषारा करते हुए यह रिपोर्ट स्पष्ट तौर पर बयान करती है। विभिन्न अनुसूचित जाति संगठनों और मानवाधिकार संस्थानों द्वारा अत्यंत जतन से तैयार की गयी रिपोर्ट कानून लागू करनेवाले तंत्र-पुलिस, प्रषासन और न्यायपालिका, खासकर पुलिस में व्याप्त पक्षपातपूर्ण रवैये को बेनकाब कर देती है। पक्षपात नहीं तो एक उदासीनता राहत वितरण और पुनर्वास जैसे गैर-विवादित मामलों में जरूर दिखाई पड़ती है। अनुसूचित जातियों पर हिंसा रोकने के मामले में नौकरषाही का पक्षपात सामाजिक एवं आर्थिक कानूनों को लागू करने के संदर्भ में भी खुलकर सामने आ जाता है। यहाॅं नौकरषाही ही अपराधी है, जिसका नजरिया और व्यवहार तमाम स्तरों पर क्रियान्वयन की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। कुल मिलाकर रिपोर्ट के तथ्यों एवं विष्लेषण से स्पष्ट होता है कि सदियों से आर्थिक और सामाजिक रूप से हाषिये पर जी रहे दलितों के प्रति समाज के प्रभुत्वषाली वर्गो के नजरिया, लोकतंत्र, समता और न्याय आदि के तमाम ढोल-बाजे के बावजूद नहीं बदला है। यह सुनना अत्यन्त कष्टदायक लग सकता है। पर दलितों के मामले में क्या अगड़ा,क्या पिछड़ा सब के सब एक हैं। आज भी असल प्रष्न यही है कि दलित लोग मनुष्य हैं या नहीं?तथाकथित भूमंडलीकरण के इस दौर में यह पूछना कितना ही दारूण क्यों न हो, पर इसी आईने में हम अपने तथाकथित महान देष की असली सूरत देख सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र की विष्व सामाजिक स्थिति रिपोर्ट ने 2010 केन्द्र एवं राज्य सरकारों के दलितों एवं आदिवासी की कल्याणकारी योजनाओं के उनके तक पहुँचाने का उजागर किया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में दलित और विषेषकर दलित परिवार की महिलाएं संविधान के बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने सभी सरकारों एवं सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की पोल खोल दी है, जो दलित एवं आदिवासी कल्याण के लिए हजारों करोड़ खर्च के दावे करते रहे हैं। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों की योजनाओं का बहुत बड़ा हिस्सा उन तक पहुँच नहीं पाता,जो इसके हकदार हैं। भारतीय संविधान ने दलितों एवं आदिवासी को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए अनेक प्रावधान किये हैं। भारत की समस्याओं के निदान के लिए वे ही समाधान उपयुक्त हैं जो भारतीय परिस्थितियों और जीवन पद्धतियों के अनुसार हों। राष्ट्रीय मानवाधिकार को सार्वजनिक तथा निजी संस्थानों में भेदभाव/पक्षपात को समाप्त करने के लिए सषक्त करना पड़ेगा। यह सिद्धांत भी उचित प्रतीत होता है कि जाति, धर्म-मत-पंथ, लिंग तथा जन्म स्थान पर आधारित भेदभाव मानवाधिकारों के उल्लंघन का ही अंष है। मानवाधिकार एवं समानता दोनों एक दूसरे से जुड़े पक्ष हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में दलित महिलाओं की स्थिति पर विषेष रुप से चिंता बतायी गई है। अधिकांष दलित अषिक्षित महिलायें उत्पीड़न सहने पर मजबूर हैं। सरकारी आरक्षण का प्रावधान एवं कल्याणकारी योजनाएं इनके लिए कोई मायने नहीं रख्ती। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मद्देनजर केन्द्र और राज्य सरकारों को दलित समाज के लिए चलाये जा रहे विभिन्न परियोजनाओं पर उनका अधिकार स्थापित करना पड़ेगा।

प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त डा॰ अर्जुन सेन गुप्ता समिति की अनुषंसा के आधार पर देष की 77 फीसद आबादी हर दिन 20रूपया से भी कम जिन्दगी जीती है और इस आबादी का तीन-चैथाई हिस्सा असंगठित क्षेत्र के दलित एवं आदिवासी का होता है। भोजन, षिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा का सार्वभौमिकरण ही एक मात्र असंतोष एवं हिंसा को थामने का उपाय है।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

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