Tuesday, December 7, 2010

दिनांक 18 एवं 19 सितम्बर, 2010 को पटना में ‘‘न्याय के लिए राष्ट्रीय दलित आन्दोलन’’ के तत्वावधान में राज्य स्तरीय अधिवक्ता विमर्ष के अवसर पर
डा॰ जगन्नाथ मिश्र का सम्बोधन।




भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों के द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता एवं समानता को सुनिष्चित किया गया है। अनुच्छेद 15 में स्पष्ट रुप से कहा गया है कि राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिग, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं बरतेगी। अनुच्छेद 14 में ‘विधि के सामने समानता’ और ‘कानून का समान रुप से संरक्षण’ सुनिष्चित किया गया है। मौलिक अधिकारों को न्यायालय का संरक्षण प्राप्त है। स्वतंत्र न्यायपालिका ने इन अधिकारों को तत्वपूर्ण बना दिया है। भारतीय संविधान के नीति निर्देषक तत्व के अंतर्गत राज्य को समानता स्थापित करने के लिए सकारात्मक पहल के लिए निर्देष दिया गया है। इस संदर्भ में अनुच्छेद 46 उल्लेखनीय है। इसमें कमजोर वर्ग के लोगों, विषेषकर अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों को सामाजिक अन्याय और षोषण के विरुद्ध संरक्षण देने की बात कही गयी है। भारत में रंग, नस्ल और धर्म के आधार पर भेदभाव की समस्या मोटे तौर पर नहीं रही है। भारत का संविधान समानता की भावना से प्रेरित एक गणतांत्रिक दस्तावेज है। इसमें समानता, न्याय और स्वतंत्रता जैसे गणतांत्रिक मूल्य संजोए हुए हैं। इसका मूल उद्देष्य समाज में व्याप्त हर प्रकार के भेदभाव को मिटाना है, क्योंकि केवल भेदभाव रहित सामाजिक व्यवस्था में ही स्वतंत्रता को महफूज किया जा सकता है। व्यक्ति अधिकार तथा समष्टि के अधिकार के बीच में तालमेल बिठाना भारतीय संविधान की प्रमुख उपलब्धि है। संविधान के मौलिक अधिकारों में इन दोनों प्रकार के अधिकारों का उल्लेख है। व्यक्तिगत अधिकार सभी नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के रुप में दिए गये हैं। उसी प्रकार समष्टिगत अधिकार धार्मिक-अल्पसंख्यकों और कुछ इसी तरह के अन्य कई अधिकार अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग को दिये गये हैं। इस प्रकार हमारा संविधान बुद्धिमता के साथ व्यक्ति के मोल को और उसके समुदाय के मोल को जोड़कर देखता है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार तथा राज्य के नीति-निर्देषक तत्व नागरिकों को समान अधिकार का उपभोग करने का अवसर देते हैं। संविधान के अनुच्छेद 16(1) तथा 16(2) नागरिकों को उनके वर्ण, जाति, लिंग तथा धर्म के आधार पर भेदभाव किये बिना समान अवसर का आष्वासन देते हैं। इसके अलावा संविधान भारतीय राज्य को सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में हस्तक्षेप द्वारा समानता प्रतिष्ठित करने का दिषा-दर्षन देता है। संविधान न केवल जाति, आस्था, समुदाय और भाषा के समान व्यवहार के लिए प्रावधान बनाता है, बल्कि यह भी सुनिष्चित करता है कि वह क्रियान्वित हो। नागरिकों का हित साधना ही संविधान का ध्येय है। संविधान इन मूल्यों के क्रियान्वयन के लिए ‘सकारात्मक कार्रवाई’ कर सकता है, जिससे एक समानता के धरातल का निर्माण हो सके। संविधान का ध्येय तथा समय-समय पर न्यायपालिका द्वारा अनुसूचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों के संबंध में सुनाए गये निर्णय इस बात का प्रमाण है कि एक विषमतारहित समाज-व्यवस्था का निर्माण करना भारतीय गणराज्य का उद्देष्य है। भारतीय संविधान एक समतावादी समाज के लिए प्रतिबद्ध है। यह सरकार को प्रचलित विषमताओं के निराकरण हेतु विभिन्न उपायों से सक्षम बनाता है। इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय तरीका ‘‘सकारात्मक पक्षपात’’ है। सकारात्मक पक्षपात का अर्थ होता है सामाजिक तथा आर्थिक रुप से कमजोर और वंचित वर्गों को षिक्षा तथा रोजगार के क्षेत्र में विषेषाधिकार देना। ‘‘सकारात्मक पक्षपात’’ के पीछे मंषा स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक वर्षों में समाज के वंचित वर्गों को दूसरों के बराबर लाने की थी। इसका जोर षिक्षा, रोजगार तथा स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने के लिए उनके रास्ते के रोड़ों को हटाना था। ऐसे प्रावधानों की चर्चा संविधान सभा में हुई और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा कुछ विषेष वर्गों को सकारात्मक पक्षपात की सुविधा दी गई।

मानवाधिकार आयोग ने पिछले दिनों अनुसूचित जातियों पर हो रहे अत्याचारों और इन्हें रोकने के लिए बने कानूनों के हस्र के बारे में एक रिपोर्ट जारी की है। ‘‘रिपोर्ट आॅन प्रिवेंषन आॅफ एट्रोसिटीज अगेंस्ट षेडयूल्ड कास्टस’’ नामक इस दस्तावेज से आजाद भारत में भी अनुसूचित जातियों की जारी दुर्गति साफतौर पर उभरकर आती है। इस बात का विषेष महत्व है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी एक प्रमुख संवैधानिक संस्था की रिपोर्ट हमारे सभ्य समाज व लोकतांत्रिक राज की असलियत से हमें रू-ब-रू कराती है। इस रिपोर्ट की प्रस्तावना में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीष और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति ए॰एस॰ आनन्द कहते हैं- ‘संविधान में पर्याप्त प्रावधानों और अन्य कानूनों के बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि सामाजिक अन्याय और अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य कमजोर तबकों का षोषण जारी है। भारत द्वारा अपने को एक गणतंत्र घोषित करने की आधी सदी से अधिक के बाद भी सामान्यतः तमाम अनुसूचित जातियों के लोगों एवं खासकर दलितों को जिस अपमान से गुजरना पड़ता है, वह एक षर्म की बात है।’ रिपोर्ट में इस ‘षर्म की बात’ के कारणों की षिनाख्त की कोषिष की गयी है। इसके फलस्वरूप समाज, प्रषासन एवं षासन सब कठघरे में खड़े दिखायी देते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की यह रिपोर्ट आंकड़ों के आधार पर पूरे देष में दलितों की प्रताड़ना एवं पीड़ा को व्यापकता एवं गहराई से प्रस्तुत करती है। इसमें बताया गया है कि दलितों के नागरिक अधिकारों की रक्षा और उनके विरूद्व अत्याचारों को रोकने के लिए बने कानूनों के तहत सबसे अधिक मामले बिहार एवं उŸार प्रदेष में दर्ज हुए हैं। इसकी बुनियादी वजह यह है कि दूसरे राज्यों की तुलना में बिहार एवं उŸार प्रदेष में अनुसूचित जातियों की आबादी कहीं ज्यादा है। बिहार एवं उŸार प्रदेष के अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेष, गुजरात, आंध्र प्रदेष और तमिलनाडु ऐसे अन्य राज्य हैं, जहाॅं अनुसूचित जातियों पर अधिक जुल्म हुए हैं। इस रिपोर्ट की असली ताकत इन अत्याचारों के पीछे के कारणों की पहचान के प्रयास में निहित है। इसमें साफतौर पर रेखांकित किया गया है कि हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था से उपजा सोच इसकी एक प्रमुख वजह है। दूसरी बात यह है कि ग्रामीण इलाकों में भूमि से जुड़े मामले दलितों पर अत्याचार का एक बड़ा कारण हैं। भूमि सुधारों की विफलता से अनुसूचित जातियों को वह आर्थिक सुधार नहीं मिल सका, जो उन्हें सामाजिक संरचना की काट में मददगार बनाता।

रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि सुधारों को लागू करने के कुछ मामलों एवं कुछ राज्यों को छोड़कर कहीं सफलता नहीं दिखाई पड़ती। भूमि सुधारों का क्रियान्वयन राजनीतिक इच्छाषक्ति एवं नौकरषाहों में प्रतिबद्धता की कमी, कानूनों में मौजूद खामियों, भूस्वामियों की दांव-पेंच की व्यापक क्षमता, गरीबों के बीच संगठन के अभाव और अदालतों की अत्यधिक दखलंदाजी की भेंट चढ़ गया। वितरण के लिए बहुत कम अतिरिक्त जमीन भूस्वामियों से प्राप्त की जा सकी। इस निराषाजनक स्थिति में यह षायद ही संभव था कि भूमि सुधारों का कुछ ठोस लाभ अनुसूचित जातियों को मिल पाये। इस तरह दलितों को उनकी कमजोर स्थिति एवं बेचारगी से उबारने के एक कारगर उपाय को भी बढ़ाया नहीं जा सका। इस स्थिति ने दलितों को कई जगहों पर एक नयी तरह की राजनीतिक पहलकदमी से जुड़ने को मजबूर कर दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ ऐसे ही अवसर आते हैं, जब कोई दलित व्यक्ति किसी राज्य के मुख्यमंत्री की गद्दी तक जा पहुँचता है, पर वह भी सामाजिक संरचना एवं राजनीतिक समीकरण के दबाव में अपने समुदाय के हित में कोई मजबूत व असरदार निर्णय नहीं ले पाता। ऐसे माहौल में कई बार दलित जातियां अपने सम्मान एवं भूमि सुधारों की खातिर रैडिकल वामपंथी आन्दोलनों से भी जुड़ी है। सामंती तत्वों के लिए यह स्थिति बर्दाष्त से बाहर साबित हुई है। इसके जबाव में इनकी निजी सेनाओं ने आगजनी, बलात्कार एवं सामूहिक कत्लेआम जैसे बर्वर जुल्म दलितों पर ढाये हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘अनुसूचित जाति की औरतों पर अत्याचारों की सबसे कड़ी मार पड़ती है। अनुसूचित जाति की औरतों के साथ हुए बलात्कार की गिनती बढ़ती गयी है। सामन्ती जाति से संबंधित निजी सेनाओं द्वारा बलात्कार का इस्तेमाल पूरे समुदाय के मनोबल को तोड़ने के लिए एक हथियार के रूप में होता है।’ औरतें प्रभुत्वषाली जातियों के गुस्से का निषाना बन जाती हैं। औरतों को छोटे-मोटे झगड़ों के मामले में भी लोगों द्वारा नंगा करके घुमाने जैसी कई अन्य तरह की जिल्लतों से गुजरना पड़ता है। औरतों को धर्म के नाम पर देवदासी जैसी सबसे घृणित वेष्यावृत्ति प्रथा में ढकेल दिया जाता है, जिसमें अधिकतर अछूत जातियों की 6 से 8 वर्ष की लड़कियां भगवान को समर्पित कर दी जाती हैं। ये षादी नहीं कर सकती हैं और मंदिर के पुजारी व अन्य प्रभुत्व वाली जाति के लोग इनके साथ बलात्कार करते हैं। आखिर में इन लड़कियों को षहरी चकलाघरों में बेच दिया जाता है।

रिपोर्ट बताती है कि निजी सेनाओं द्वारा या अन्य रूपों में ढाये गये जुल्मों में राज्य, अनुसूचित जातियों के बदले अत्याचारों के पक्ष में खड़ा नजर आया है। इसका कारण नौकरषाही सहित सारी राज्य मषीनरी एवं सामाजिक संरचना में व्याप्त पक्षपात है। ऐसा लगता है कि पर्याप्त संवैधानिक प्रावधान, लोकतांत्रिक प्रक्रिया, विकास, जागृति एवं षिक्षा के उदारचेता प्रभावित नागर समाज (सिविल सोसाइटी) को रूपांतरित करने में सफल नहीं हो सके हैं। दुखद तथ्य यह भी है कि इस तथाकथित सभ्य समाज की नयी पीढ़ी भी वर्णवाद सोच से उबर नहीं पायी है। इन सारी चीजों का राज्य मषीनरी की संरचना एवं उसके व्यवहार पर खासा असर होता है। रिपोर्ट में इन बातों पर गंभीरता एवं तनिक विस्तार से चर्चा की गयी है। कहा गया है कि इन स्थितियों में राजनीतिक स्तर पर भी ईमानदारी की कमी है और अनुसूचित जातियों की स्थिति के प्रति एक गहरी उदासीनता है। इस माहौल में समझना मुष्किल नहीं है कि दलितों पर जुल्म ढानेवाले लोग कैसे बच निकलते हैं और कानून धरा का धरा रह जाता है। बहरहाल दलितों, आदिवासियों के प्रति गहरी संवेदनषीलता के लिए चर्चित रहे अवकाष प्राप्त आइएएस अधिकारी केबी सक्सेना द्वारा तैयार की गयी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की यह रिपोर्ट सरकारी भाषा की उलझन से परे दो टूक षब्दों में बातों को रखती है। अनुसूचित जातियों के पक्ष के बने कानूनों के बेअसर रहने के कारणों की ओर इषारा करते हुए यह रिपोर्ट स्पष्ट तौर पर बयान करती है। विभिन्न अनुसूचित जाति संगठनों और मानवाधिकार संस्थानों द्वारा अत्यंत जतन से तैयार की गयी रिपोर्ट कानून लागू करनेवाले तंत्र-पुलिस, प्रषासन और न्यायपालिका, खासकर पुलिस में व्याप्त पक्षपातपूर्ण रवैये को बेनकाब कर देती है। पक्षपात नहीं तो एक उदासीनता राहत वितरण और पुनर्वास जैसे गैर-विवादित मामलों में जरूर दिखाई पड़ती है। अनुसूचित जातियों पर हिंसा रोकने के मामले में नौकरषाही का पक्षपात सामाजिक एवं आर्थिक कानूनों को लागू करने के संदर्भ में भी खुलकर सामने आ जाता है। यहाॅं नौकरषाही ही अपराधी है, जिसका नजरिया और व्यवहार तमाम स्तरों पर क्रियान्वयन की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। कुल मिलाकर रिपोर्ट के तथ्यों एवं विष्लेषण से स्पष्ट होता है कि सदियों से आर्थिक और सामाजिक रूप से हाषिये पर जी रहे दलितों के प्रति समाज के प्रभुत्वषाली वर्गो के नजरिया, लोकतंत्र, समता और न्याय आदि के तमाम ढोल-बाजे के बावजूद नहीं बदला है। यह सुनना अत्यन्त कष्टदायक लग सकता है। पर दलितों के मामले में क्या अगड़ा, क्या पिछड़ा सब के सब एक हैं। आज भी असल प्रष्न यही है कि दलित लोग मनुष्य हैं या नहीं? तथाकथित भूमंडलीकरण के इस दौर में यह पूछना कितना ही दारूण क्यों न हो, पर इसी आईने में हम अपने तथाकथित महान देष की असली सूरत देख सकते हैं।

देष के कोने-कोने में दलित आज भी भीषण पीड़ा और प्रताड़ना की जिन्दगीे झेल रहे हैं और हमारा सभ्य समाज बेखबर अपने विकास का गुणगान किये जा रहा है। दलित तबका इस विकास में षिरकत का महज स्वप्न भी देखने की जुर्रत करे, तो उसे बेइंतहां जुल्म के चक्के और तेजी से रौंदने लगते हैं, पर राष्ट्र-राज्य को एक लोकतंत्र के रूप में यदि बने रहना और बढ़ना है, तो इस भीषण सामाजिक, आर्थिक गैर-बराबरी और अन्याय से निजात पाना ही होगा। मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट इस दिषा में अनेक सिफारिषें भी पेष करती है। सारांषतः अनुसूचित जातियों को जारी त्रासदी से मुक्त कराने के लिए उनके संरक्षण के लिए बने विभिन्न कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने और दोषियों को दंड देने के साथ-साथ सामाजिक संरचना एवं सोच में व्यापक परिवर्तन की भी जरूरत है। कहना न होगा कि इसमें राज्य, समाज और स्वयं अनुसूचित जातियों की अपनी-अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है। संयुक्त राष्ट्र की विष्व सामाजिक स्थिति रिपोर्ट ने 2010 केन्द्र एवं राज्य सरकारों के दलितों एवं आदिवासी की कल्याणकारी योजनाओं के उनके तक पहुँचाने का उजागर किया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में दलित और विषेषकर दलित परिवार की महिलाएं संविधान के बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने सभी सरकारों एवं सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की पोल खोल दी है, जो दलित एवं आदिवासी कल्याण के लिए हजारों करोड़ खर्च के दावे करते रहे हैं। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों की योजनाओं का बहुत बड़ा हिस्सा उन तक पहुँच नहीं पाता, जो इसके हकदार हैं। भारतीय संविधान ने दलितों एवं आदिवासी को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए अनेक प्रावधान किये हैं। भारत की समस्याओं के निदान के लिए वे ही समाधान उपयुक्त हैं जो भारतीय परिस्थितियों और जीवन पद्धतियों के अनुसार हों। राष्ट्रीय मानवाधिकार को सार्वजनिक तथा निजी संस्थानों में भेदभाव/पक्षपात को समाप्त करने के लिए सषक्त करना पड़ेगा। यह सिद्धांत भी उचित प्रतीत होता है कि जाति, धर्म-मत-पंथ, लिंग तथा जन्म स्थान पर आधारित भेदभाव मानवाधिकारों के उल्लंघन का ही अंष है। मानवाधिकार एवं समानता दोनों एक दूसरे से जुड़े पक्ष हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में दलित महिलाओं की स्थिति पर विषेष रुप से चिंता बतायी गई है। अधिकांष दलित अषिक्षित महिलायें उत्पीड़न सहने पर मजबूर हैं। सरकारी आरक्षण का प्रावधान एवं कल्याणकारी योजनाएं इनके लिए कोई मायने नहीं रख्ती। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मद्देनजर केन्द्र और राज्य सरकारों को दलित समाज के लिए चलाये जा रहे विभिन्न परियोजनाओं पर उनका अधिकार स्थापित करना पड़ेगा।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

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