Friday, December 10, 2010

दिनांक 04 अगस्त, 2010 को ललित नारायण मिश्र काॅलेज आॅफ बिजनेस मैनेजमेंट, मुजफ्फरपुर के सभागार में काॅलेज के एम॰बी॰ए॰ एम॰सी॰ए॰ 2010-12 पाठ्यक्रम सत्र के शुभारंभ के अवसर पर
डा॰ जगन्नाथ मिश्र का सम्बोधन।

विगत वर्षों में हमारे देश में प्रबंधन षिक्षा का पर्याप्त विस्तार हुआ है। इन वर्षों में प्रबंधन षिक्षा के दु्रत विकास के क्रम में यदा-कदा गुणवत्ता और स्तरीयता की अल्पता उत्पन्न हुई जिस कारण से मानव संसाधन की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। गुणवत्ता, प्रभाव एवं प्रासंगिकता ऐसे महत्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिनके माध्यम से समाज प्रबंधन शिक्षा की कामयाबी को मापता है। यू॰जी॰सी॰ के द्वारा आयोजित एक सर्वेक्षण से यह प्रकाष में आया है कि लगभग सभी सूचकों पर यथा निकाय के स्तर, पुस्तकालयीय सुविधायें, संगणक (कम्प्यूटर) की उपलब्धता, षिक्षक-छात्र का अनुपात आदि- प्रबंधन षिक्षा को यथाषीघ्र समुन्नत करना अत्यावष्यक है। आज यह जबरदस्त भावना हो गयी है कि विष्वविद्यालयों और काॅलेजों से प्रबंधन स्नातकोत्तर उत्तीर्ण की कुषलता जाॅब मार्केट की अपेक्षाओं से मेल नहीं खाती हैं, ये प्राप्त षिक्षा (डिग्री) के अनुपात में कत्र्तव्य पर खरे नहीं उतरते हैं। एक ओर तो हम षिक्षित बेरोजगारों की इतनी बड़ी संख्या नहीं चाहते और दूसरी ओर हमारे पास जो कार्य (जाॅब) हैं उनके लिये अनुकूल उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हैं। हमारे जैसे विकासषील देष में नियोजन की दृष्टि से अयोग्य प्रबंधन स्नातक बेकारी की समस्या से भी बड़ी समस्या प्रस्तुत कर देते हैं। आज के स्पर्धा भरे वातावरण की मांग है प्रबंधन षिक्षा की उत्कृष्टतर गुणवत्ता/ राष्ट्रीय एवं विष्व-बाजार में केवल वे ही संस्थायें प्रतियोगिता में आने की स्थिति में होंगी जो निरंतर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करें। यह कहा जाता है कि गुणवत्ता नागरिकों की गुणवत्ता पर आश्रित होती है। और, नागरिकों की गुणवत्ता उनकी षिक्षा पर निर्भर करती है। ये बातें प्रबंधन षिक्षा के मामले में खासतौर से सच्ची पायी जाती हैं। राष्ट्रीय एवं विष्व बाजार की प्रतियोगिता में सफल होने के लिये यह अनिवार्य है कि हमारी प्रबंधन उच्च षिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता का सम्वर्द्धन किया जाय। प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता सम्बर्द्धित करने हेतु किसी विष्वविद्यालय एवं स्वायत्त संस्थानों को वृहत् धनराषि की जरूरत होती है। षैक्षिक और भौतिक आधारभूत संरचना यथा कक्षाओं और प्रयोगषालाओं, पुस्तक भंडार को अद्यतन करना, पुस्तकालय में पत्रिका, संदर्भ सामग्री और षिक्षकों-षिक्षकेतर कर्मचारियों के वेतन-भुगतान आदि की गुणवत्ता संवर्द्धित करने हेतु हमें धनराषि की जरूरत है। हमें धनराषि तबतक नहीं प्राप्त होगी जबतक हम विश्वविद्यालय, सरकार एवं अन्य श्रोतों द्वारा किये गये व्यय की उपयोगिता उच्च स्तरीय गुणवत्ता के परिणाम स्वरूप नहीं सिद्ध करते हैं। एक ऐसे तंत्र को विकसित करना ही है जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता को निरंतर आकलित और संधारित करता रहे। प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता और प्रासंगिकता से संबंधित एक दूसरा मुद्दा है जो प्रबंधन षिक्षा की आंतरिक और वाह्य उत्पादकता के बारे में है। वे, जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता से मतलब रखते हैं अपने मानकों, यथा अंक, प्रकाषन आदि का उपयोग कर इस पर (गुणवत्ता पर) मात्र आंतरिक परिप्रेक्ष्य से देखते रहे हैं। किन्तु उद्योग और अन्य आर्थिक क्षेत्र (सेक्टर) जिन्हें अपनी उत्पादन प्रणाली में छात्रों की जरूरत है, लब्धांक या प्राप्त प्रतिभा प्रमाणपत्रों से अधिक हैं; ये मूलतः प्राप्त ज्ञान और कुषलता से मतलब रखते हैं। ये लक्षित परिणाम उत्पादित करने हेतु कुछ क्रियाकलापों के संपादन में छात्रों को लगाना चाहते हैं। ये अपने व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य से, न कि छात्रों के षैक्षिक ज्ञान के आधार पर, गुणवत्ता को परखते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता दो भिन्न मार्गों से समझी जाती हैः-(1) संस्था के आंतरिक परिप्रेक्ष्य से और (2) उस बाजार के वाह्य परिप्रेक्ष्य से, जिसमें ये स्नातक/स्नातकोत्तर नियोजित किये जा सकेंगे। वे संस्थायें जो गुणवत्ता का आकलन अपने-अपने आंतरिक कार्य संचालन के आधार पर करती हैं, उद्योगजगत् द्वारा वांछित गुणवत्तापरक अर्हताओं को पूर्ण नहीं करती हैं। संस्थानों कालेजों और विष्वविद्यालयों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने हेतु प्रयुक्त षत्र्तों में ये बिन्दु सम्मिलित हैं- (अ) पाठ्यक्रम पहलू (आ) अध्यापन, सीखना और मूल्यांकन (इ) षोध, परामर्ष और प्रसार (ई) आधारभूत संरचना (उ) छात्र-साहाय्य (ऊ) संगठन और प्रबंधन (ए) स्वास्थ क्रियाकलाप। उपर्युक्त षर्तों का प्रयोग संस्थाओं की गुणवत्ता के आकलन में किया जाता है। दूसरी ओर उद्योगजगत् की अभिरूचि ऊपर वर्णित उस व्यक्ति में है, जो व्यक्ति वस्तुयें उत्पादित कर सकता है। इसलिये षिक्षा की गुणवत्ता या षिक्षा के मानक जो छात्रों से अपेक्षित हैं वे उद्योगतजगत् के अपने दायरे में हैं। अस्तु, ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वृहत्तर विचारण एवं चर्चा आवष्यक हैं। षिक्षा एवं प्रबंधन षिक्षा को बुनियादी जरूरत माना जाता है। भारत की आजादी के बाद यहां की हर सरकार घोषित रूप से ही सही षिक्षा के प्रसार की दिषा में कई योजनाएं बनाती रही है। हालांकि इस बात पर हमेषा सवाल उठता रहा है कि इन योजनाओं के अमल में कितनी ईमानदारी बरती जाती है। लेकिन इस बात को स्वीकार करने में किसी को कोई एतराज नहीं होनी चाहिए कि प्रबंधन षिक्षा का प्रसार हुआ है। पर अपेक्षित और आवष्यक प्रसार प्रबंधन षिक्षा के क्षेत्र में नहीं हो पाया है। इस अवसर पर यह कहना बड़ा ही समीचीन होगा कि एक दृष्टिकोण है कि प्रबंधन षिक्षा संख्या की दृष्टि से गुणवत्ता की कीमत पर बहुत विस्तृत हुई है और प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता क्रमषः अधोगति प्राप्त करती रही है। लोग अभी भी महसूस करते हैं कि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देष में षिक्षा तक पहुँच या इसका अधिकाधिक विस्तार अभी भी एक प्राथमिकता है। षिक्षा में षिक्षक उन चुनौतियों को देखते हैं जो इस अंतद्र्वन्द्व से उत्पन्न हुई हैं। किसी भी राष्ट्र के लिए यह हितकर नहीं होगा कि प्रबंधन षिक्षा के विस्तार को उपेक्षित किया जाय। लेकिन तकनीकी विकास के इस युग में गुणवत्ताविहीन प्रबंधन षिक्षा मजाक बनकर रह जाती है। सबों के लिए गुणवत्तापरक षिक्षा राष्ट्र के समक्ष एक साहसिक कार्यभार है। संविधान के प्राक्कथन में और मौलिक अधिकारों से संबद्ध भाग में ही अंकित है कि समानतापूर्वक जीने का अधिकार और सामाजिक न्याय के साथ जीने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है। यह अधिकार इस अधिकार की पूरी गारंटी है और इसका उच्च से उच्च अर्थ है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इस आधिकार की आधिकारिक व्याख्या की गई है; जिसका अर्थ है-सम्मान और समानतापूर्ण जीवन स्तर और अवसर जो जीने के अधिकार से संबंधित है। इस व्याख्या में यह भी अंकित है कि षिक्षा मानवीय सम्मान का अति महत्वपूर्ण अंग है और इसलिए षिक्षा संविधान के मौलिक अधिकार में सन्निहित है। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो॰ अमत्र्य सेन ने षिक्षा को विकसित करने के लिए प्रत्येक स्तर पर सर्वांगीण गुणवत्ता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि षिक्षा से ही किसी राष्ट्र का वास्तविक विकास संभव हो पाता है क्योंकि विषिष्ट षिक्षा से ही किसी राष्ट्र को अच्छे इंजीनियर, प्रबंधक, डाक्टर, व्यवसायी, अधिवक्ता, लेखा विषेषज्ञ, आचार्य (प्रोफेसर) तथा सभी क्षेत्रों से संबंधित कुषल तकनीकी कर्मियों की उपलब्धता सुनिष्चित की जा सकती है। अतः निष्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि विषिष्ट षिक्षा को विकसित करने में व्यय धनराषि अनुत्पादक निवेष नहीं है बल्कि दीर्घकालिक रूप में एक उत्पादक निवेष है। कहने की जरूरत नहीं कि षिक्षा के प्रति नयी जागरूकता के बावजूद काम अभी बाकी है। तमाम अभियानों-कार्यक्रमों के बावजूद आज भी देष में लगभग 36 करोड़ लोग षिक्षा से वंचित हैं। राष्ट्रीय षिक्षा नीति 1986 में षिक्षा के मद में सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिषत आवंटन की जरूरत रेखांकित की गयी थी पर यह आजतक नहीं हो सका। 1990 के दषक के दौरान प्रारंभिक षिक्षा पर चालू सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 1.69 से घटकर 1.47 प्रतिषत पर प्रारंभिक षिक्षा को प्राथमिकता देना षोर के बीच ही पहुँच गया। इक्कीसवीं सदी के विष्व में बुनियादी परिवर्तन हो रहा है। इसमें पूंजी, षक्ति तथा वर्चस्व की परिभाषा बदल रही है। आज का समाज ‘ज्ञान का समाज’ है। स्वभावतः बाजार भी ‘ज्ञान का बाजार’ है। आज मानव जाति षिक्षा को एक अपरिहार्य संपदा के रूप में देख रही है। षिक्षा व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास की मूलभूत भूमिका में सामने आ रही है। किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र की षक्ति का निर्धारण उसके ज्ञान की पूंजी के आधार पर होगा। ‘ज्ञान और सूचना’ विष्व की सर्वोत्तम पूंजी बनने वाली है। नई सदी में विष्व के राष्ट्रों ने अपनी कार्य-योजना पर काम करना षुरू कर दिया है। कई विकसित राष्ट्रों ने मानव संसाधन के विकास की अपनी योजना, संसाधन और आवष्यकता की समीक्षा की है। मानव संसाधन की आवष्यकता के परिप्रेक्ष्य में कई राष्ट्रों में पहले से ही काम चल रहे हैं।
सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा लोग प्रबंधन एवं तकनीकी षिक्षा हासिल करें। इससे उनके लिए देष में ही नहीं विदेषों में भी रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। आधुनिक औद्योगिक जगत् में प्रबंधक एक बहुत ही जटिल और तेजी से बदलते हुए वातावरण में कार्य-संपादन कर रहे हैं। वे पहिया में सिर्फ जड़वत नहीं बन सकते, क्योंकि उनका मौलिक कार्य एक वह मार्ग बनाना है, जो ‘इनपुट्स’ से भी अधिक लाभदायक हो सकता है। अनेक वाह्य और आंतरिक बलों, जैसे स्पर्धात्मक बाजार, औद्योगिकी गत्यात्मकता, संगठन-षक्यिाँ और सत्ताधारियों, अधिकारियों, सामाजिक स्थिति और दायित्व तथा भौतिक और सामाजिक वातावरण में हो रहे नियम विरुद्ध परिवत्र्तनों के साथ अंदरूनी संबंध या सामंजस्य स्थापित करने के कार्य भी प्रबंधक के ही हैं। ये बल प्रबंधक की प्रभावोत्पादकता पर बम से आक्रमण कर रहे हैं। लेकिन सबसे चुनौती देने वाला बल यह है कि सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य बहुत ही तीव्र गति से बदल रहे हैं। आधुनिक मान्यताओं पर आधारित उभरते हुए नये सामाजिक मूल्यों की मांग एक ओर जहाँ समानता की संवेदना है, तो दूसरी ओर कानून के नियम का अनुपालन है। अक्षमताओं और अनुषासनहीनता के प्रति उदासीन दृष्टिकोण सामाजिक भावनाओं तथा कुछ करके फुर्सत पा लेने की सामान्य भावना से द्विगुणित या युक्त होकर सभी स्तरों पर ऐसे घुलमिल कर फैल गया है कि इसने (इस दृष्टिकोण ने) प्रबंधकपरक प्रभावोत्पादकता को विकसित सवंर्द्धित करने की समस्या को और भी अधिक जटिल बना दिया है। पिछले दो दषकों में प्रबंधकीय समस्यायें जटिलता के अंकों और अंषों के संदर्भ में कई गुणा बढ़ गयी हैं। अधिकाधिक संगठन इन समस्याओं के समाधान के लिये मौजूद अध्यापन या षिक्षण के औजारों और कौषलों को निष्प्रभावी पा रहे हैं। बिना समाधान वाली इन समस्याओं से संकट उत्पन्न होता है, जिसे (संकट को) प्रबंधकीय प्रभावोत्पादकता के संवर्द्धन द्वारा दूर करने की आवष्यकता है और समस्याओं के संभव समाधान ढूँढ़ निकालने के दृष्टिकोण से प्रबंधकीय प्रभावोत्पादकता के विभिन्न आयामों के सही-सही लक्षण जानने की भी आवष्यकता है। प्रबंधन का भारतीय दर्षन संगठनात्मक प्रभावोत्पादकता को मानवीय मूल्यों पर आघारित मानता है और सभी व्यापारों के केन्द्र में लोगों को रखता है; यह दर्षन भारत की सामान्य प्रकृति अथवा स्वाभाविक विषष्टिता तथा नीतिषास्त्र पर आधारित प्रबंधन के सिद्धांतों का अनुसरण इसलिये करता है कि व्यक्ति-व्यक्ति अपनी-अपनी अंतरात्मा की खोज करने में सक्षम हो सके। यह एक परामर्ष या सदुपदेष है, जो एक सत्य का संदेष देता है और यह सत्य मानवीय मूल्यों के लाभदायक प्रभाव के बारे में है, जो न केवल प्रबंधनपरक है, अपितु आध्यात्मिक अनूभूति और परिपूर्णता के चरित्र का प्रस्फुटनपरक भी है। मेरा निष्कर्ष है, स्वयं अपने को पढ़ाओ, प्रत्येक प्रबंधक को उनकी अपनी वास्तविक प्रकृति पढ़ाओ। सुषुप्त आत्मा का आह्वान करो और देखो यह कैसे जगती है। बल आयेगा, गौरव आयेगा, अच्छाई आयेगी, पवित्रता आयेगी और प्रबंधन में उत्कृष्टता आयेगी तब, जब सोयी आत्मा मूल्यों के माध्यम से चेतनामय कर्म-संपादन तक जगाकर उठा दी जाय। चूंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार का वातावरण बाहुसंख्यक चुनौतियों का सामना कर रहा है, इसलिये यह सार्थक है कि सभी संगठन क्रियात्मक क्षमता स्तर में त्वरित विकास के लिये रास्ते बनायें, अन्यथा कार्य-संस्कृति समुन्नत नहीं की सकती है। इक्कीसवीं सदी का यह एक नारा है-- ‘सफलता हासिल करो या मरो’। प्रबंधन षिक्षा की बेहतर व्यवस्था के जरिये रोजगार क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए प्रचूर संभावनाएं हैं। प्रबंधन एवं तकनीकी षिक्षा तंत्र में ज्यादा स्वायत्तता, स्वतंत्रता और लचीलेपन की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षा सृजनात्मक, उपयोगी, असरदार और प्रासंगिक होनी चाहिए। वास्तव में, हमें जिन इंजीनियरों, प्रबंधक एवं तकनीकी प्रषिक्षित लोगों की दरकार है वह नयी विधाओं में है और हम अपनी आवष्यकतानुसार इंजीनियर, प्रबंधक एवं तकनीकी प्रषिक्षित लोग तैयार नहीं कर पा रहे हैं। चूंकि राज्य में समुचित सुविधाएं और संस्थाएं पर्याप्त नहीं हैं, इसलिये बड़ी संख्या में प्रखर बुद्धि युवा विभिन्न विधाओं, विषेषकर सूचना प्रौद्योगिकी में, इंजीनियरी एवं प्रबंधन षिक्षा राज्य के बाहर में प्राप्त करते हैं। वे प्रमुखतः बंगलौर, हैदराबाद, पुणे और चेन्नई जाते हैं और अधिकतकर वापस न लौटकर अन्यत्र रोजगार ढूंढ़ लेते हैं। जहांतक प्रबंधन एवं सूचना प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में निजी संस्थानों की बहुतायत की बात है, आवष्यक है कि उनके ऊपर पाठ्यक्रम स्तर और श्रेणीकरण पर सामान्य नियंत्रण हो। ऐसे नियंत्रण की प्रकृति के निर्धारण के लिये विषेष अध्ययन और उसके षीघ्र क्रियान्वयन की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षा को रोजगारोन्मुख और रोजगारपरक बनाए जाने की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षा को ज्यादा उपयोगी कौषल से युक्त और साथ ही साथ रोजगार के अवसर बढ़ाने वाली षिक्षा बनाने के लिये रणनीति अपनाए जाने की जरूरत है। प्रबंधन षिक्षण प्रणाली में उद्यमषीलता के महत्व और काॅलेज षिक्षा के स्तर से ही छात्रों को उद्यमों की स्थापना के प्रति उन्मुख करने पर जोर दिया जाना चाहिए जिससे उन्हें धन अर्जित करने के लिये क्रियाषीलता, स्वतंत्रता और सामथ्र्य प्राप्त हो।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

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