Thursday, December 9, 2010

दिनांक 21 अगस्त, 2010 को इन्दिरा गांधी तारामण्डल सभागार में इन्डियन इन्सटीच्युट आॅफ मैनेजमेंट तथा इनफौरमेषन टेकनोलोजी, पटना द्वारा आयोजित राष्ट्रीय व्याख्यानमाला के अवसर पर
डा॰ जगन्नाथ मिश्र, पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री का सम्बोधन।

प्रबंधन विज्ञान के नए आयाम पर आयोजित इस व्याख्यानमाला में उपस्थित होने का निमंत्रण मिला, इस हेतु मैं संस्थान के निदेषक, डा॰ चक्रधर सिंह को धन्यवाद देता हूँ।
अमरीका के पेन्सीलवानिया विष्वविद्यालय में वर्ष 1883ई॰ में सर्वप्रथम प्रबंधन संस्थान की स्थापना हुई। तत्पष्चात हाड़वार्ड ग्रेजुएट स्कूल आॅफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेषन द्वारा एम॰बी॰ए॰ की षिक्षा प्रारंभ हुई। अमरीका के बाद यूरोप के प्रमुख देषों जैसे इंगलैंड, फ्रांस, स्वीटजरलैंड, इटली, जर्मनी आदि में व्यवसाय-प्रबंधन संस्थानों का उद्भव और विकास हुआ। 1980 ई॰ के दषक में व्यवसाय के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी एम॰बी॰ए॰ का अध्ययन प्रारंभ हुआ, जैसे डठ। भ्नउंद त्मेवनतबम डंदंहमउमदजए डठ। ज्मबीदवसवहल डंदंहमउमदजए डठ। ैजतंजमहपब डंदंहमउमदज आदि। साथ ही, दूर षिक्षा के क्षेत्र में भी एम॰बी॰ए॰ का प्रवेष हुआ। पिछले तीन दषकों में हम व्यवसाय प्रबंधन तथा इंजीनियरिंग, कानून, वस्तुकला आदि में मणिकांचन संयोग पाते हैं। अमरीका के प्रसिद्ध पेन्सीलवानिया विष्वविद्यालय में जिस प्रकार वर्ष 1883 ई॰ में सर्वप्रथम व्यवसाय प्रबंधन का अध्ययन प्रारंभ किया गया, इसी भांति मैंने बिहार में सर्वप्रथम व्यवसाय प्रबंधन का पाठ्यक्रम एम॰बी॰ए॰ स्तर का 1973 में प्रारंभ कराया था, मुजफ्फरपुर और तत्पष्चात पटना में। अखिल भारतीय तकनीकी षिक्षा परिषद् की स्वीकृति से एम॰बी॰ए॰ पाठ्यक्रम प्रारंभ कराया। पिछले कुछ दषकों में मैनेजमेंट की षिक्षा-दीक्षा में आमूल परिवर्तन ;ैमं ब्ींदहमद्ध हुए हैं। कम्प्यूटर आधारित मैनेजमेंट षिक्षा इस षताब्दी की देन है। मैनेजमेंट में कम्प्यूटर के अधिकाधिक प्रयोग से समय तथा क्षेत्र की दूरी न्यून हो गई है और संपूर्ण विष्व आज ळसवइंस क्तंूपदह त्ववउ हो गया है। मल्टीमीडिया भीडियो तकनीक आज मैनेजमेंट षिक्षा का अमोध अस्त्र है। कम्प्यूटर तकनीक का प्रयोग कम्पीटेन्सी मैपिंग में अधिक हो रहा है। ब्वउचमजमदबल च्तवपिसपदह भी कहते हैं। प्रबंधन विज्ञान के क्षेत्र में कम्प्यूटर टेकनोलोजी का प्रभाग इंटरनेट के प्रचार-प्रसार से जोड़ा जा सकता है। इसके पाँच आयाम विषेष रूप से परिलक्षित होते हैं:- (क) ज्ञान। (ख) दक्षता। (ग) रूचि। (घ) गुण। (ड.) प्रवृति। व्यवसाय प्रबंधन से संबंधित निर्णयों में बहुर्राष्ट्रीय कंपनियाँ कम्प्यूटर टेकनोलोजी से अधिक लाभान्वित हैं। इस संदर्भ में म्गमबनजपअम डठ। अधिक महत्वपूर्ण सहायक हो रहा है।
20वीं सदी के उत्तरार्द्ध ने अनेकानेक सकारात्मक और नकारात्मक विकासों के लिये रास्ते निर्मित किये हैं। हम इससे इनकार नहीं कर सकते कि सकारात्मक विकास ने सामाजिक-आर्थिक परिवत्र्तन की प्रक्रिया में जान, षक्ति और निरंतरता पिरो दी, लेकिन साथ ही नकारात्मक विकास ने संकटपूर्ण समस्यायें भी उत्पन्न कर दीं, जिनसे वातावरण संबंध प्रदूषण, जल की अषुद्धता, सांस्कृतिक प्रदूषण, पारिवारिक बिखराव आदि के लिये भी मार्ग बना दिये गये। सही अर्थ में प्राकृतिक पर्यावरण इतना अधिक अस्थिर हो गया है कि नकारात्मक विकास समूह ने सकारात्मक विकास पर हावी होना षुरू कर दिया है। फलतः चीजों को पटरी पर लाने के लिये दृष्टिकोण-परिवत्र्तन की जरूरत हो जाती है। इसी पृष्ठभूमि में संसार भर के प्रबंधन-चिन्तकों ने प्रबंधन की धारणा और समझदारी दोनों में तुरत मौलिक परिवत्र्तन की अनुभूति कर ली। सम्मेलनों और सभाओं में प्रबंधन एक ठोस निर्णय के लिये विचार-विमर्ष षुरू हो गये हैं और इसके लिये प्रबंधनों की पवित्र अवधारणा विष्वसनीयता अर्जित कर लेती है। विष्व के चारों ओर प्रबंधन-विद्यालय अपने-अपने पाठ्यक्रमों में ढांचागत परिवत्र्तन करना षुरू करते रहे हैं ऐसे प्रबंधकों को विकसित करने के लिये जो सफलतापूर्वक तनाव का मुकाबला कर सकें। समान प्रकृति और मूल्यों ने निर्णय लेने की प्रक्रिया में कैटेलिटिक भूमिका निभाना षुरू कर दिया है। अगर विष्व के विभिन्न देषों में इस समान प्रकृति और मूल्यों की हो रही धारणा और बोधगम्यता की क्रिया की ओर अपनी-अपनी आँखें फेरें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने सांस्कृतिक प्रेरणा षक्ति को अलौकिक प्राथमिकता दे रखी है। अमेरिकावासियों द्वारा अपनी सांस्कृतिक प्रेरणा को सम्मुख रख अपेक्षित वजन कार्य संपादन में उत्कृष्टता को प्रदान किया जाता है; यूरोपवासियों द्वारा विष्वासपात्रता या भक्ति को उच्च प्राथमिकता दी जाती है और एषिया में जापानवासियों द्वारा राष्ट्रीय उत्कृष्टता को सर्वोपरि प्राथमिकता दी जाती है। हमलोग भारत के प्रसंग में भी एक षुरूआत पाते हैं; यहाँ मूल्य-प्रजनन-प्रक्रिया पर प्रकाष दिखता है।
सामने आती हुई प्रवृत्तियाँ और उभरते हुए विकास से यह ऐसे लोगों के स्वभाव और गुण सुनिष्चित होते हैं, सांगठनिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिये जैसे लोगों की हमें जरूरत होती है। दबाव की गहनता कोरपोरेट प्रबंधको की उत्कृष्टता सुनिष्चित करती है, क्योंकि सामना करने वाली बहुपक्षीय समस्यायें और चुनौतियाँ उनके (प्रबंधकों के) लिये तेजाबी जाँच ही सिद्ध होती हैं। 21वीं सदी के प्रबंधकों को अधिक तात्त्विक क्षमता की जरूरत होती है और इसके लिये व्यवहारमूलक (आचरणमूलक) और पर्यावरणमूलक अध्ययनों, जीवन-विज्ञान और मानव विज्ञान, समाजषास्त्र, नीतिषास्त्र, समान प्राकृतिक वैषिष्ट्य और मूल्य जैसे महत्वपूर्ण विषयों की प्राथमिकता से ध्यान देने की जरूरत, (की ओर) प्रबंधन के छात्रों को षिक्षण-प्रषिक्षण देते समय पड़ती है। आपदा प्रबंधन हेतु प्राथमिकता से ध्यान की जरूरत होती है, क्योंकि हम पाते हैं कि विष्व बहु-कोणीय प्राकृतिक और कृत्रिमता से निर्मित समस्याओं का सामना कर रहा है। एक ओर ‘कारपोरेट’ प्रबंधकों विकास की गति को दु्रत से दु्रततर करने की जरूरत है, तो दूसरी ओर उन्हें मूल्य-अभियंत्रण की प्रक्रिया को सुदृढ़ता प्रदान करने की भी जरूरत पड़ती है। इसके अतिरिक्त उन्हें यह भी सुनिष्चित करने की जरूरत होती है कि नीति संबंधी निर्णयों से प्राकृतिक पर्यावरण निम्नगामी नहीं होने वाला है।
पेषापरक ज्ञान विकास का रास्ता दुरूस्त करता है और इससे यह अनिवार्य हो जाता है कि प्रबंधकगण को विष्वस्तरीय पेषापरक उत्कृष्टता प्राप्त है। प्रबंधकों को क्रियात्मक क्षमता में वृद्धि लाने हेतु व्यक्तिस्तरीय या निजी वचनबद्धता की जरूरत होती है। साथ ही उन्हें समान प्राकृतिक वैषिष्टों और मूल्यों में वृद्धि लाने की निजी वचनबद्धता की भी जरूरत सकारात्मक विकासों को प्रोन्नत करने हेतु होती है। व्यापारिक और गैर-व्यापारिक दोनों ही संगठनों को अंतर्दृष्टि और उद्देष्य को इसलिये परिवत्र्तित करना ही है, ताकि औद्योगिक क्षेत्र के आमूल परिवत्र्तन के लाभ सामाजिक आमूल परिवत्र्तन की प्रक्रिया को क्रियाषील करने में कुंजी की सी भूमिका का निर्वहन कर सकें। काॅरपोरेट क्षेत्र विलम्ब से ही सही, भारत के संदर्भ में भी लोकप्रियता हासिल करता आ रहा है। औद्योगिक आमूल परिवत्र्तन की प्रक्रिया को दु्रत तो किया गया है, लेकिन औद्योगिक विकास के फायदे मुष्किल से समाज के कमजोर वर्गों द्वारा संचित किये जा सके हैं। पिछड़ापन विषाल सागर के चारों ओर समृद्ध लघु द्वीपों का विकास हमारे महान् अदिष्ट कार्य को संपादित करने के लिये कदापि नहीं है। यह इसे औचित्यपूर्ण करता है कि लाभदायी और गैर-लाभदायी संगठन और सरकार के विभाग मिलकर अपनी नीतियाँ विनिर्मित करें अपने कार्यक्रम निर्धारित करें- इन उभरते विकासों और आ रही प्रवृत्तियों के सामने। उन्हें प्रबंधन की पवित्रतामूलक अवधारणा को व्यवहार में उतारना है, ताकि मूल्य-आभियंत्रण तीव्र से तीव्र गति को प्राप्त करे। हमें ‘काॅरपोरेट’ संस्कृति को ऐसे रूप में विकसित-प्रोन्नत करने की जरूरत है जिससे सांगठनिक और सामाजिक हितों को एक न्यायसंगत समन्वय संभव हो सके या न्यायसंगत तारतम्य हो सके। गैर-सरकारी संगठनों को खासकर सामाजिक आमूल परिवत्र्तन की प्रक्रिया में कुंजी की-सी भूमिका निभाने की जरूरत है। श्रम-संगठनों को कार्य-संस्कृति को विकसित करना होगा, क्योंकि प्रचलित ढांचों और दृष्टिकोणों के साथ वाली ‘काॅरपोरेट’ संस्कृति से प्रत्याषा हम कर ही नहीं सकते हैं। धामिक संगठनों को प्रबंधन के सिद्धांतों की अवधारणा इसलिये बनाने की जरूरत है कि सामाजिक हितों का संरक्षण वे कर सकें। लगभग सभी कार्य-क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिक उद्धार की प्रक्रिया के साथ, गहरे प्रौद्योगिक ज्ञान को सूत्रबद्ध करना है। आविष्कार और नवीकरण को उच्च प्राथमिकता की आवष्यकता है। चूंकि अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक वातावरण अनेक-अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है, यह सार्थक है कि सभी संगठन क्रियामूलक क्षमता में षीघ्रातिषीघ्र अभिवृद्धि के रास्ते तैयार कर लें, अन्यथा कार्य-संस्कृति को समुन्नति सहित विकसित किया ही नहीं जा सकता है। ‘‘सफल प्रतियोगी बनो या विनष्ट हो जाओ’’ ही 21वीं सदी का नारा है।
विगत वर्षों में हमारे देष में प्रबंधन षिक्षा का पर्याप्त विस्तार हुआ है। इन वर्षों में प्रबंधन षिक्षा के दु्रत विकास के क्रम में यदा-कदा गुणवत्ता और स्तरीयता की अल्पता उत्पन्न हुई जिस कारण से मानव संसाधन की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। गुणवत्ता, प्रभाव एवं प्रासंगिकता ऐसे महत्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिनके माध्यम से समाज प्रबंधन षिक्षा की कामयाबी को मापता है। यू॰जी॰सी॰ के द्वारा आयोजित एक सर्वेक्षण से यह प्रकाष में आया है कि लगभग सभी सूचकों पर यथा निकाय के स्तर, पुस्तकालयीय सुविधायें, संगणक (कम्प्यूटर) की उपलब्धता, षिक्षक-छात्र का अनुपात आदि- प्रबंधन षिक्षा को यथाषीघ्र समुन्नत करना अत्यावष्यक है। आज यह जबरदस्त भावना हो गयी है कि विष्वविद्यालयों और काॅलेजों से प्रबंधन स्नातकोत्तर उत्तीर्ण की कुषलता जाॅब मार्केट की अपेक्षाओं से मेल नहीं खाती हैं, ये प्राप्त षिक्षा (डिग्री) के अनुपात में कत्र्तव्य पर खरे नहीं उतरते हैं। एक ओर तो हम षिक्षित बेरोजगारों की इतनी बड़ी संख्या नहीं चाहते और दूसरी ओर हमारे पास जो कार्य (जाॅब) हैं उनके लिये अनुकूल उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हैं। हमारे जैसे विकासषील देष में नियोजन की दृष्टि से अयोग्य प्रबंधन स्नातक बेकारी की समस्या से भी बड़ी समस्या प्रस्तुत कर देते हैं। आज के स्पर्धा भरे वातावरण की मांग है प्रबंधन षिक्षा की उत्कृष्टतर गुणवत्ता/ राष्ट्रीय एवं विष्व-बाजार में केवल वे ही संस्थायें प्रतियोगिता में आने की स्थिति में होंगी जो निरंतर गुणवत्तापूर्ण षिक्षा प्रदान करें। यह कहा जाता है कि गुणवत्ता नागरिकों की गुणवत्ता पर आश्रित होती है। और, नागरिकों की गुणवत्ता उनकी षिक्षा पर निर्भर करती है। ये बातें प्रबंधन षिक्षा के मामले में खासतौर से सच्ची पायी जाती हैं। राष्ट्रीय एवं विष्व बाजार की प्रतियोगिता में सफल होने के लिये यह अनिवार्य है कि हमारी प्रबंधन उच्च षिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता का सम्वर्द्धन किया जाय।
प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता सम्बर्द्धित करने हेतु किसी विष्वविद्यालय एवं स्वायत्त संस्थानों को वृहत् धनराषि की जरूरत होती है। षैक्षिक और भौतिक आधारभूत संरचना यथा कक्षाओं और प्रयोगषालाओं, पुस्तक भंडार को अद्यतन करना, पुस्तकालय में पत्रिका, संदर्भ सामग्री और षिक्षकों-षिक्षकेतर कर्मचारियों के वेतन-भुगतान आदि की गुणवत्ता संवर्द्धित करने हेतु हमें धनराषि की जरूरत है। हमें धनराषि तबतक नहीं प्राप्त होगी जबतक हम विष्वविद्यालय, सरकार एवं अन्य श्रोतों द्वारा किये गये व्यय की उपयोगिता उच्च स्तरीय गुणवत्ता के परिणाम स्वरूप नहीं सिद्ध करते हैं। एक ऐसे तंत्र को विकसित करना ही है जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता को निरंतर आकलित और संधारित करता रहे।
प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता और प्रासंगिकता से संबंधित एक दूसरा मुद्दा है जो प्रबंधन षिक्षा की आंतरिक और वाह्य उत्पादकता के बारे में है। वे, जो प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता से मतलब रखते हैं अपने मानकों, यथा अंक, प्रकाषन आदि का उपयोग कर इस पर (गुणवत्ता पर) मात्र आंतरिक परिप्रेक्ष्य से देखते रहे हैं। किन्तु उद्योग और अन्य आर्थिक क्षेत्र (सेक्टर) जिन्हें अपनी उत्पादन प्रणाली में छात्रों की जरूरत है, लब्धांक या प्राप्त प्रतिभा प्रमाणपत्रों से अधिक हैं; ये मूलतः प्राप्त ज्ञान और कुषलता से मतलब रखते हैं। ये लक्षित परिणाम उत्पादित करने हेतु कुछ क्रियाकलापों के संपादन में छात्रों को लगाना चाहते हैं। ये अपने व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य से, न कि छात्रों के षैक्षिक ज्ञान के आधार पर, गुणवत्ता को परखते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रबंधन षिक्षा की गुणवत्ता दो भिन्न मार्गों से समझी जाती हैः-(1) संस्था के आंतरिक परिप्रेक्ष्य से और (2) उस बाजार के वाह्य परिप्रेक्ष्य से, जिसमें ये स्नातक/स्नातकोत्तर नियोजित किये जा सकेंगे। वे संस्थायें जो गुणवत्ता का आकलन अपने-अपने आंतरिक कार्य संचालन के आधार पर करती हैं, उद्योगजगत् द्वारा वांछित गुणवत्तापरक अर्हताओं को पूर्ण नहीं करती हैं। संस्थानों कालेजों और विष्वविद्यालयों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने हेतु प्रयुक्त षत्र्तों में ये बिन्दु सम्मिलित हैं- (अ) पाठ्यक्रम पहलू (आ) अध्यापन, सीखना और मूल्यांकन (इ) षोध, परामर्ष और प्रसार (ई) आधारभूत संरचना (उ) छात्र-साहाय्य (ऊ) संगठन और प्रबंधन (ए) स्वास्थ क्रियाकलाप। उपर्युक्त षर्तों का प्रयोग संस्थाओं की गुणवत्ता के आकलन में किया जाता है। दूसरी ओर उद्योगजगत् की अभिरूचि ऊपर वर्णित उस व्यक्ति में है, जो व्यक्ति वस्तुयें उत्पादित कर सकता है। इसलिये षिक्षा की गुणवत्ता या षिक्षा के मानक जो छात्रों से अपेक्षित हैं वे उद्योगतजगत् के अपने दायरे में हैं। अस्तु, ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर वृहत्तर विचारण एवं चर्चा आवष्यक हैं।
किसी भी राष्ट्र के लिए यह हितकर नहीं होगा कि प्रबंधन षिक्षा के विस्तार को उपेक्षित किया जाय। लेकिन तकनीकी विकास के इस युग में गुणवत्ताविहीन प्रबंधन षिक्षा मजाक बनकर रह जाती है। सबों के लिए गुणवत्तापरक षिक्षा राष्ट्र के समक्ष एक साहसिक कार्यभार है। संविधान के प्राक्कथन में और मौलिक अधिकारों से संबद्ध भाग में ही अंकित है कि समानतापूर्वक जीने का अधिकार और सामाजिक न्याय के साथ जीने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है। यह अधिकार इस अधिकार की पूरी गारंटी है और इसका उच्च से उच्च अर्थ है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इस आधिकार की आधिकारिक व्याख्या की गई है; जिसका अर्थ है-सम्मान और समानतापूर्ण जीवन स्तर और अवसर जो जीने के अधिकार से संबंधित है। विषिष्ट षिक्षा से ही किसी राष्ट्र को अच्छे इंजीनियर, प्रबंधक, डाक्टर, व्यवसायी, अधिवक्ता, लेखा विषेषज्ञ, आचार्य (प्रोफेसर) तथा सभी क्षेत्रों से संबंधित कुषल तकनीकी कर्मियों की उपलब्धता सुनिष्चित की जा सकती है। अतः निष्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि विषिष्ट षिक्षा को विकसित करने में व्यय धनराषि अनुत्पादक निवेष नहीं है बल्कि दीर्घकालिक रूप में एक उत्पादक निवेष है।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

No comments:

Post a Comment

Ĭ