Friday, December 10, 2010

दिनांक 05 अगस्त, 2010 को ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के स्थापना दिवस
समारोह के अवसर पर डा॰ जगन्नाथ मिश्र का सम्बोधन।
शैक्षिक पुनर्निर्माण भारत वर्ष के अंतर्गत सर्वाधिक चर्चित विषयों में से एक है। इस विषय पर बहुत कहा जा चुका है। किन्तु षिक्षा के वैष्वीकरण के मुद्दा ने नये रूप से हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। इस विषय पर गर्माहट के साथ विवाद हुए हैं और प्रतिरोध भी हुए हैं। एक दृष्टिकोण है कि उच्च षिक्षा संख्या की दृष्टि से गुणवत्ता की कीमत पर बहुत विस्तृत हुआ है और उच्च षिक्षा की गुणवत्ता क्रमषः अधोगति प्राप्त करती रही है। इसके विपरीत कुछ लोग हैं जो अभी भी महसूस करते हैं कि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देष में उच्च षिक्षा तक पहुँच या इसका अधिकाधिक विस्तार अभी भी एक प्राथमिकता है। ग्रामीण काॅलेज में षिक्षक उन चुनौतियों को देखते हैं जो इस अंतद्र्वन्द से उत्पन्न हुई है। किसी भी राष्ट्र के लिए यह हितकर नहीं होगा कि उच्च षिक्षा के विस्तार को उपेक्षित किया जाय। लेकिन तकनीकी विकास के इस युग में गुणवत्ताविहीन षिक्षा मजाक बनकर रह जाएगी। सबों के लिए गुणवत्तापरक षिक्षा राष्ट्र के समक्ष एक साहसिक कार्यभार है। संविधान के प्राक्कथन में और मौलिक अधिकारों से संबद्ध भाग में ही अंकित है कि समानतापूर्वक जीने का अधिकार और सामाजिक न्याय के साथ जीने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है। यह अधिकार इस अधिकार की पूरी गारंटी है और इसका उच्च से उच्च अर्थ है। माननीय उच्च न्यायालय द्वारा इस आधिकार की अधिकारिक व्याख्या की गई है; जिसका अर्थ है-सम्मान और समानतापूर्ण जीवन स्तर और अवसर जो जीने के अधिकार से संबंधित है। इस व्याख्या में यह भी अंकित है कि षिक्षा मानवीय सम्मान का अति महत्वपूर्ण अंग है और इसलिए षिक्षा संविधान के मौलिक निर्माण में सन्निहित है। इस प्रकार षिक्षा राज्य के लिए मौलिक दायित्व है ताकि प्रत्येक भारतीय वर्ग, वर्ण, जाति-रंग सामाजिक-आर्थिक स्तरों से निरपेक्ष होकर गुणवत्तापूर्ण उच्च स्तरीय षिक्षा की संस्था तक सबों को पहुँचाया जाय। करीब 70 प्रतिषत भारत की आबादी ग्रामीण एवं अर्धषहरी क्षेत्रों में जीवन बसर करती है। हमारी जनसंख्या के 15करोड़ से अधिक 17-18 वर्षों की उम्र सीमा में आते हैं जिनका एक छोटा हिस्सा हीं इतना षिक्षित हो पाते हैं कि बेहतर जीवन के निमित्त जीवकोपार्जन कर सकें। करोड़ों-करोड़ भारतीयों को षिक्षित करना और सषक्त करना हमारा सर्वोत्तम लक्ष्य है, गरीबी कम करने का और 2020 तक एक विकसित राष्ट्र होने का। यह लक्ष्य सबों को गुणवत्तापूर्ण उच्च षिक्षा प्राप्त करके हीं प्राप्त किया जा सकता है। जैसे आज ज्ञान भौतिक संपदा को उत्पन्न करता है जो वर्तमान एवं भविष्य का धनश्रोत है वैसे हीं उच्च षिक्षा के महत्व को भी एक देष के विकास में विषेष बल प्रदान करता है। समाज में षिक्षा कई प्रकार के कार्य संपादित करती है जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण जो कार्य हैं उनमें सामाजिक विकास के साधन की भूमिका, सामान्य जीवन के सुव्यवस्थित संचालन में प्रगति की भूमिका, समाज की आर्थिक प्रतिस्पर्धा में भूमिका साथ हीं व्यक्तिगत अभ्युन्नति के माध्यम की भूमिका। राष्ट्र के आर्थिक विकास एवं षिक्षा के बीच सीधा सम्पर्क होता है। आज के बदलते संसार में जहाँ मानव जाति का जीना हीं आतंकित है, गरीब एवं अमीर के बीच में सामाजिक दूरी है, षिक्षित एवं कम षिक्षित के बीच सामाजिक दूरी प्रवृत्त है वहाँ हमारा सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य यह हो जाता है कि हम जीवन की गुणवत्ता में क्रमिक विकास को सुनिष्चित करें, वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के लिए। ग्रामीण क्षेत्र के काॅलेजें इस लक्ष्य की प्राप्ति में बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं लेकिन ये काॅलेज आवष्यकताओं एवं खाइयों की श्रृंखला से जूझ रहे हैं जिन पर तुरंत ध्यान देने की आवष्यकता है जिससे षैक्षिक उपलब्धि के स्तरों को तेज रफ्तार दी जा सके। उस आधारभूत संरचना की अपर्याप्तता जिस आधारभूत संरचना से उच्चत्तर षैक्षिक तत्वों के लिए भौतिक सुविधाएं उपलब्ध होती है, इन संस्थाओं द्वारा उत्पन्न की गई वास्तविकता को पीछे खींचती है। संस्थाओं के बीच संसाधनों के असमान वितरण के कारण उत्पन्न समस्याओं से गुणवत्ता का अधिक हªास तो हो हीं जाता है। ये ग्रामीण काॅलेज जिस स्थिति से गुजर रहें हैं; वह स्थिति षिक्षा के उद्देष्य को ज्यादा हानि पहुँचाती है और षिक्षा को षैक्षिक प्रजातंत्र को वाहन होने में (यह स्थिति) हानिकारक है अर्थात् षिक्षा अधिक से अधिक लोगों तक नहीं पहुँच पाती और न तो उन तक विस्तार हीं पाती है। वस्तुतः ग्रामीण काॅलेजों की यह खतरनाक स्थिति है जो हमारे मन को झकझोरती रहती है और इसी स्थिति में यह विषय चर्चा के लिए उठाना पड़ता है, इस स्थिति की भूमिका का जो उच्च षिक्षा की विस्तार में हुई है, उस भूमिका का मूल्यांकन हमें करना है; हमें ग्रामीण काॅलेजों की संभावनाओं और बंदिषों पर विचार-विमर्ष करना है। मुख्य रूप से कैसे ये काॅलेज षैक्षिक प्रजातंत्र का वाहन बन सकेंगे? और कैसे इन्हें एक प्रभावी ऐसा हथियार बनाया जाएगा जिससे हम समाज के दलितों, वंचितों, बेकारों के उत्थान का साहसिक कार्य कर सकेंगे? और कैसे यह हथियार उच्च षिक्षा के वैष्वीकरण विकास द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों को निष्पादित करने में सषक्त हो सकेगा। किसी भी राष्ट्र के विकास और समृद्धि के लिए सबसे जरूरी तत्व षिक्षा है। भारत 2020 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में है। परंतु अभी हमारे देष में ऐसे 30 करोड़ 50 लाख लोग हैं जिन्हें साक्षर बनने की जरूरत है और ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें उभरते हुए आधुनिक भारत और विष्व के अनुकूल रोजगार योग्य कौषल प्राप्त करना है। इसके अलावा हमें समाज के कमजोर वर्गों के उन बच्चों के बारे में सोचना चाहिए जो अल्प पोषित हैं और उनमें से कुछ प्रतिषत ही 8 वर्ष तक की अपनी षिक्षा पूरी कर पाते हैं जबकि अब षिक्षा प्रत्येक भारतीय बच्चे का मौलिक अधिकार है। क्या हम चाहेंगे कि ये लाखों बच्चे जीवनभर गरीबी में जीते रहें? जरूरत इस बात की है कि अभिभावकों को अपने बच्चों को नजदीकी स्कूल में ले जाकर दाखिला करवाना चाहिए और प्रसन्नता और इस विष्वास के साथ वापस घर लौटना चाहिए कि उनका बच्चा उस स्कूल में अच्छी और नैतिक मूल्यों की षिक्षा प्राप्त करेगा। मानसिक और षारीरिक रूप से अक्षम बच्चों की ओर भी ध्यान देने की आवष्यकता है। इन गंभीर मुद्दों के महत्व को देखते हुए और अपनी पुरानी मानसिकता को समाप्त करने के लिए, सभ्यता के अस्तित्व और विकास हेतु एक प्रभावी और स्वनिर्मित षिक्षा प्रणाली की आवष्यकता है। अनेक कारणों से षैक्षिक संसाधनों तक असमान पहुंच अभीतक बनी हुई है। उदाहरण के लिए तीन प्रकार के परिवार देखे हैं। पहले, वे भाग्यषाली परिवार, जो किसी भी कीमत पर परिवार के बच्चों को षिक्षित करने और अपनी आर्थिक संपन्नता के कारण सभी स्तरों पर उनका मार्गदर्षन करने का महत्व जानते हैं। फिर वे परिवार हैं, जो षिक्षा का महत्व तो जानते हैं, पर अपने बच्चों के लिए अवसर और उन्हें साकार करने की प्रक्रिया और तरीकों के बारे में नहीं जानते। तीसरे प्रकार के परिवार हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और जो षिक्षा के महत्व को नहीं जानते हैं, पीढ़ीयों से उनके बच्चे उपेक्षा और गरीबी में जीते आ रहे हैं। यह आवष्यक है कि हम समाज के सभी वर्गों, विषेषकर ग्रामीण क्षेत्रों और षहर में रहने वाले गरीबों को षिक्षा के प्रति जागरूक बनाएं। हमें इस महत्वपूर्ण सामाजिक उद्देष्य के लिए प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना चाहिए। गैर सरकारी संगठनों, अन्य सामाजिक और लोकोपकारी संस्थाओं और मीडिया के लिए इस क्षेत्र में जागरूकता पैदा करना संभव है। अल्प सुविधा प्राप्त लोगों को षिक्षा उपलब्ध करवाने के लिए हमें आवष्यक संसाधनों को गतिषील बनाना चाहिए। पिछले 50 वर्षों से, प्रत्येक सरकार सर्वव्यापी षिक्षा का राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्त करने के प्रति कटिबद्ध रही है और षिक्षा के लिए लगातार बजटीय आवंटन में वृद्धि की गई है, जबकि हमारी 35 प्रतिषत प्रौढ़ जनसंख्या को अभी षिक्षित किया जाना है। हमारे सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिषत के रूप में षिक्षा पर वास्तविक सार्वजनिक व्यय का हमारी साक्षरता पर सीधा असर होता है। इस समय देष में षिक्षा पर किया जा रहा व्यय सकल धरेलू उत्पाद के 4 प्रतिषत से कुछ अधिक है। यदि हमें षत-प्रतिषत साक्षरता प्राप्त करनी है तो षिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 6 से 7 प्रतिषत व्यय जरूर करना होगा। 2 से 3 प्रतिषत तक की इस वृद्धि को कुछ वर्षों तक बनाए रखना होगा। इसके बाद षिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद के कम अनुपात में आवंटन भी भविष्य में साक्षरता का उंचा स्तर कायम रखने के लिए पर्याप्त होगा।
पहली पंचवर्षीय योजना से दसवीं पंचवर्षीय योजना का तुलनात्मक अध्ययन दर्षाता है कि जहाँ एक ओर महाविद्यालयों तथा विष्वविद्यालयों की संख्या के साथ षिक्षकों एवं छात्रों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है वहीं उच्च षिक्षा पर राज्यों द्वारा किया जा रहा व्यय एवं केन्द्र सरकार द्वारा आवंटित अनुदान राषि में क्रमषः गिरावट परिलक्षित हो रही है। आंकड़े देष में षिक्षा की गति एवं उसके स्तर पर सवालिया निषान लगा रहे हैं। कहना न होगा कि हम षिक्षा के क्षेत्र में इतना आगे बढ़ गये हैं कि निरक्षरता में दुनिया भर में सबसे आगे पहुँच गये हैं। आज चीन, श्रीलंका, क्यूबा आदि देष षिक्षा के मामले में हमसे आगे हैं। इस समय देष में 16 करोड़ 10 लाख बच्चे प्राथमिक षिक्षा तक से वंचित है। इसमें 10 करोड़ 24 लाख बच्चे 6 से 11 वर्ष की उम्र के हैं और 6 करोड़ 7 लाख बच्चे 11 से 14 वर्ष की उम्र के हैं जबकि 160 लाख से अधिक बच्चे मजदूरी करने को अभिषप्त है। राष्ट्रीय स्तर पर इस सोच को विकसित करना आवष्यक है कि राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए उच्च षिक्षा की गुणवत्ता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसके लिए आवष्यक रूप से अध्ययन एवं अध्यापन में गुणात्मक सुधार होना चाहिये। षिक्षकों के आदर्ष मूल्यों का पुनरावलोकन हो एवं अपचयित संसाधनों की पूर्ति की जाये। उच्च स्तर के षोध एवं विकास के दृष्टिगत निपुण षिक्षकों की मांग की प्रतिपूर्ति के साथ-साथ समानांतर दिषा में वे क्षेत्र भी विकसित करने होंगे जिनमें बौद्धिक वर्ग के लिए देष में ही रोजगार उपलब्ध हों और देष उनकी सेवा का लाभ उठा सके। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो॰ अमत्र्य से न ने विष्वविद्यालय को विकसित करने के लिए प्रत्येक स्तर पर सर्वांगीण गुणवत्ता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उच्च षिक्षा से ही किसी राष्ट्र का वास्तविक विकास संभव हो पाता है क्योंकि उच्च षिक्षा से ही किसी राष्ट्र को अच्छे इंजीनियर, डाक्टर, व्यवसायी, अधिवक्ता, लेखा विषेषज्ञ, आचार्य (प्रोफेसर) तथा सभी क्षेत्रों से संबंधित कुषल तकनीक कर्मियों की उपलब्धता सुनिष्चित की जा सकती है। अतः निष्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि उच्च षिक्षा को विकसित करने में व्यय धनराषि अनुत्पादक निवेष नहीं है बल्कि दीर्घकालिक रूप में एक उत्पादक निवेष है। कहने की जरूरत नहीं कि साक्षरता के प्रति नयी जागरूकता के बावजूद कितना काम अभी बाकी है। तमाम अभियानों-कार्यक्रमों के बावजूद आज भी देष में लगभग 36 करोड़ लोग ‘काले-काले अक्षरों को नहीं चीन्हने वाले’ ही हैं। साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि साक्षरता अभियान के तहत नवसाक्षर बने लगभग 10 करेाड़ लोग व्यवहारतः दस्तखत वगैरह तक ही सीमित है। आज 2001 की जनसंख्या में साक्षरता दर की जिस वृद्धि की चर्चा है उसमें ऐसे नवसाक्षरों की संख्या का बड़ा योगदान है। राष्ट्रीय षिक्षा नीति 1986 में षिक्षा के मद में सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिषत आवंटन की जरूरत रेखांकित की गयी थी पर यह आजतक नहीं हो सका। 1990 के दषक के दौरान प्रारंभिक षिक्षा पर चालू सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 1.69 से घटकर 1.47 प्रतिषत पर प्रारंभिक षिक्षा को प्राथमिक देने के षोर के बीच ही पहुँच गया। इक्कीसवीं सदी विष्व में बुनियादी परिवर्तन हो रहा है। इसमें पूंजी, षक्ति तथा वर्चस्व की परिभाषा बदल जाएगी। कल का समाज ‘ज्ञान का समाज’ होगा। स्वभावतः कल के बाजार भी ‘ज्ञान के बाजार’ होंगे। आज मानव जाति षिक्षा को एक अपरिहार्य संपदा के रूप में देख रही है। षिक्षा व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास की मूलभूत भूमिका में सामने आ रही है। किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र की षक्ति का निर्धारण उसके ज्ञान की पूंजी के आधार पर होगा। कल के युद्ध तोप, टैंक या मिसाइल से नहीं, बल्कि ‘सूचना और ज्ञान’ की ताकत से बाजार में लड़े जाएंगे, जैसाकि पेटेंट कानून को लेकर संघर्ष षुरू हो गया है। विष्व में यह नाटकीय बदलाव दिखने भी लगा है। लगभग दो सदी से तेल-व्यापार की बदौलत विष्व के धनवान व्यक्तियों में सर्वोच्चता बनाए रखने वाले जान राकफेलर और ब्रुनेई के सुलतान अपना स्थान खो चुके हैं। आज ज्ञान की उद्यमिता के बल पर बिल गेट्स विष्व के सबसे अमीर व्यक्ति बन गए हैं। इस प्रकार ‘ज्ञान और सूचना’ विष्व की सर्वोत्तम पूंजी बनने वाली है। नई सदी में विष्व के राष्ट्रों ने अपनी कार्य-योजना पर काम करना षुरू कर दिया है। कई विकसित राष्ट्रों ने मानव संसाधन के विकास की अपनी योजना, संसाधन और आवष्यकता की समीक्षा की है। मानव संसाधन की आवष्यकता के परिप्रेक्ष्य में कई राष्ट्रों ने पहले से ही काम चल रहे हैं। इंग्लैंड और फ्रांस जैसे विकसित देषों ने अपनी षिक्षा-व्यवस्था की संरचनात्मक मजबूती के वास्ते बजट प्रावधान में भारी वृद्धि की है। इस समय इसकी आवष्यकता है कि षैक्षणिक क्षेत्र में अन्य विषयों के अतिरिक्त निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार-विमर्ष कर एक ठोस कार्य योजना प्रस्तुत किया जाए:- (1) आधुनिकीकरण निजीकरण एवं वैष्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में उच्च षिक्षा एवं राष्ट्रीय विकास। ( 2) ग्रामीण भारत के संदर्भ में उच्च षिक्षा के विकास में विष्वविद्यालय अनुदान आयोग की भूमिका। (3) उच्च षिक्षा के बदलते परिदृष्य में षिक्षकों की भूमिका और कर्तव्यषीलता। (4) बिहार में काॅलेज और विष्वविद्यालय प्रषासन के उद्भव, विकास और निर्माण। (5)आधुनिकीकरण, निजीकरण, वैष्वीकरण एवं तकनीकी विकास के युग में ग्रामीण भारत के मद्देनजर ग्रामीण काॅलेज की, राष्ट्र निर्माण में, भूमिका।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

No comments:

Post a Comment

Ĭ