Tuesday, December 7, 2010

दिनांक 27 अक्टूबर, 2010 को ललित नारायण मिश्र काॅलेज आॅफ बिजनेस मैनेजमेंट, मुजफ्फरपुर के सभागार में ‘‘उपभोक्ता संरक्षण’’ विषय पर महाविद्यालय द्वारा आयोजित परिसंवाद में
डा॰ जगन्नाथ मिश्र का सम्बोधन।



विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता आंदोलन के परस्पर संबंधों को मनाने और एकता प्रदर्षित करने का दिन है। यह संयुक्त राज्य अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जाॅन एफ॰ कैनेडी द्वारा 15 मार्च, 1962 को चार मूलभूत उपभोक्ता अधिकारों के बारे में की गई ऐतिहासिक घोषणा की याद में मनाया जाता है। उस घोषणा के फलस्वरूप सरकारों और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंततः इस बात पर बल दिया गया कि सभी नागरिकों के उनकी आय या सामाजिक स्थिति पर विचार किए बिना उपभोक्ता के रूप में कुछ मूलभूत अधिकार हैं। भारत सरकार ने इसी के अनुरूप उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 पारित किया, जिसमें उपभोक्ताओं को मूलभूत अधिकार प्रदान किए गए जो कि इस प्रकार हैं:- (1) सुरक्षा का अधिकार: उपभोक्ता का प्रथम अधिकार सुरक्षा का अधिकार है। उसे ऐसी वस्तुओं एवं सेवाओं से सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार है जिनसे उसके षरीर एवं संपŸिा को हानि उत्पन्न हो सकती है। उसे किसी भी वस्तु या सेवा से चोट लगने या बीमार होने या क्षति होने या किसी भी व्यक्ति के अविवेकपूर्ण आचरण से क्षति होने के विरुद्ध सुरक्षा पाने का अधिकार है। उपभोक्ता इस अधिकार के द्वारा खराब एवं दुष्प्रभावी खाद्य वस्तुओं, नकली दवाओं, घटिया यंत्रों एवं उपकरणों तथा बाजार में उपलब्ध घटिया, नकली, जाली सभी वस्तुओं में होने वाली धन, स्वास्थ्य एवं षरीर की हानि से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है। (2) चुनाव या पसंद का अधिकार: उपभोक्ता अपने इस अधिकार के अंतर्गत विभिन्न निर्माताओं द्वारा निर्मित विभिन्न ब्रांड, किस्म, गुण, रूप, रंग, आकार तथा मूल्य वस्तुओं में से किसी भी वस्तु का चुनाव करने का स्वतंत्र होगा। (3) सूचना पाने का अधिकार: उपभोक्ता को वे सभी आवष्यक सूचनाएं भी प्राप्त करने का अधिकार होता है जिनके आधार पर वह वस्तु या सेवा खरीदने का निर्णय कर सके। यह सूचनाएं वस्तु की किस्म, मात्रा, षुद्धता, प्रमाण, मूल्य आदि के संबंध मे हो सकती है। इन सूचनाओं को प्राप्त करके कोई भी उपभोक्ता व्यवसायी के अनुचित व्यापारिक व्यवहारों से भी सुरक्षा प्राप्त कर सकता है। (4) सुनवाई या कहने का अधिकार: उपभोक्ता को अपने हितों को प्रभावित करने वाली सभी बातों को उपयुक्त मंचों के समक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार है। वे अपने इस अधिकार का उपयोग करके व्यवसायी एवं सरकार को अपने हितों के अनुरूप निर्णय लेने तथा नीतियाँ बनाने के लिये बाध्य कर सकते हैं। सुनवाई का अधिकार ह ीवह अधिकार है, जिसके द्वारा वह अपनी षिकायत को व्यक्त कर सकता है तथा अपने अन्य उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा कर सकता है। (5) उपचार का अधिकार: यह अधिकार उपभोक्ता का यह आष्वासन प्रदान करता है कि क्रय की गई वस्तु या सेवा उचित एवं संतोषजनक ढंग से उपयोग में नहीं लाई जा सकेगी तो उसे उसकी उचित क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकार होगा। उपभोक्ता के इस अधिकार की रक्षा के लिये सरकार कानूनी व्यवस्था करती है। भारत के उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत इस प्रकार की व्यवस्था की गई है। (6) उपभोक्ता षिक्षा का अधिकार: इस अधिकार के अंतर्गत उपभोक्ता को उन सब बातों की षिक्षा या जानकारी प्राप्त करने का अधिकार होता है जो एक उपभोक्ता के लिये आवष्यक होती है। षिक्षा उपभोक्ता की जागरूकता की आधारभूत आवष्यकता है, जबकि सूचना किसी क्रय की जाने वाली वस्तु या सेवा के संबंध में जानकारी है। (7) मूल्य या प्रतिफल का अधिकार: उपभोक्ता यह अपेक्षा करने का अधिकार भी रखता है कि उसे उसके द्वारा चुकाए गए धन का पूरा मूल्य मिल सकेगा। उसे व्यवसायी द्वारा विक्रय के दौरान या विज्ञापन में किए गए वायदों तथा जगाई गई आषाओं को पूरा करवाने का अधिकार होता है। संसद द्वारा पारित इस अधिनियम पर राष्ट्रपति ने दिनांक 24 दिसम्बर, 1996 को हस्ताक्षर किए और यह कानून उसी दिन से पूरे भारत में लागू माना गया। इसी परिप्रेक्ष्य में 24 दिसम्बर को ‘‘राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस’’ मनाने का निर्णय भारत सरकार द्वारा लिया गया जिसके द्वारा यह दर्षाया जाता है कि उपभोक्ता द्वारा अधिकारों को मान्यता प्रदान करना और उनकी रक्षा करना सामाजिक और आर्थिक प्रगति का महत्वपूर्ण और गरिमामय परिचायक है। उपभोक्ताओं को षोषण से बचाने के लिये एवं उन्हें अधिकतम संतुष्टि प्रदान करने के लिये उपभोक्ता अधिकारों का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करना और उपभोक्ताओं को जागरूक करना आवष्यक है।

उपभोक्ता, बाजार में उपभोक्ताओं का महत्व और उपभोक्ताओं में बढ़ती जागरूकता, देष में उपभोक्ता आंदोलन के विकास में हाल ही में हासिल कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। भारत को अब सभी प्रकार के व्यापारों और उपभोक्ता वस्तुओं के प्रमुख केन्द्र के रूप में स्वीकारा जाने लगा है। उपभोक्ता जीवन में बाजार की उपस्थिति और प्रभाव में वृद्धि हुई है। गांधी जी के कथन की ‘‘उपभाक्ता ही राजा है’’ से प्रेरित होकर स्व॰ जे॰आर॰डी॰ टाटा और स्व॰ जमनालाल बजाज सहित अनेक व्यापारियों और उद्योगपतियों ने उपभोक्ताओं और व्यापार जगत के बीच पुल बनाने के लिये व्यापार की एक आचार संहिता के विकास में योगदान किया। परंतु बड़े परिणाम में होने वाले उत्पादन और विक्रय में अंतर्निहित लाभ की लालसा अनेक निर्माताओं, उत्पादकों और व्यावसायियों को उपभोक्ताओं का संदोहन करने का अवसर भी प्रदान करती है। कम तौल और गुणवŸाा नियंत्रण एजेंसियों द्वारा निर्धारित मानकों से कम स्तर (घटिया) की वस्तुओं के विक्रय की समस्या के कारण उपभोक्ताओं को उनके पैसे का उचित मूल्य नहीं मिलता है और साथ ही, उन्हें हानि तथा असुविधाओं का सामना भी करना पड़ता है। दिन-ब-दिन उपभोक्ता के घरों में सिद्धांतहीन और बेईमानीभरी बाजार पद्धतियाँ अपनी पैठ जमाती जा रही हैं, जो उपभोक्ताओं के अधिकारों के हनन के साथ-साथ उनकी सुरक्षा के लिये भी खतरा बनती जा रही हैं। प्रौद्योगिकी का विकास, बाजार में परिष्कृत और जटिल उपस्करों के उद्भव तथा वैष्वीकरण के इस युग में आक्रामक विक्रय रणनीति ने न केवल उपभोक्ताओं के समक्ष अनेकों विकल्प के द्वार खोल दिए हैं बल्कि इससे उनको ढेरों समस्याओं का षिकार भी बना दिया है। यद्यपि मानकों चिह्नों के अनेक स्वीकृत रूप बाजार में प्रचलित हैं, और आम लोगों को इसकी जानकारी भी कुछ हद तक है, परंतु यह देखा गया है कि प्रायः लोकप्रिय और बड़े नामों वाले ब्रांड भी गुणवŸाा नियंत्रण के मामले में चूक कर जाते हैं।

समानांतर उपभोक्ता न्याय प्रणाली प्रदान करने वाला यह कानून दुनिया का एक बेहतर कानून है। भारतीय उपभोक्ता आंदोलन के इतिहास में इस कानून का बनना एक कीर्तिमान है और इससे देष के उपभोक्ताओं के अधिकारों में महत्वपूर्ण योगदान हुआ। इस कानून के बनने के समय से 21 नवम्बर, 2008 तक राष्ट्रीय, राज्य एवं जिला स्तर की उपभोक्ता अदालतों में 31 लाख से ज्यादा षिकायतें दर्ज कराई गईं जिनमें से करीब 3,56,219 मामले अभी भी लम्बित हैं। परंतु इस कानून को प्रभावकारी बनाने तथा अपने मकसद को पूरा करने के लिये यह जरूरी है कि इन अदालतों को सरल, कम खर्चीला तथा तीव्र न्याय देने वाला बनाया जाए, अन्यथा उपभोक्ताओं का विष्वास इस प्रणाली से उठ जाएगा। उदाहरण के लिये राज्य सरकारों को चाहिए कि इन अदालतों के कार्यलापों पर पूरी निगरानी रखें ताकि यह सुनिष्चित हो सके कि इन अदालतों के अध्यक्षों एवं सदस्यों की नियुक्ति सहित सभी विलंबों की स्थिति को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए। अगस्त, 2007 की स्थिति यह थी कि कुल 42 जिला उपभोकता फोरम (कुल 608 ऐसे उपभोकता फोरम हैं) से होने वाली विलंब नियुक्तियों के कारण सक्रिय नहीं थे। यह कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी स्थितियों से विवादों के तीव्र प्रचार प्रभावित होते हैं। यदि उन सेवाओं में अपीलों को प्रतिबंधित करने वाला कानून बने जिसके मूल्य एक लाख रूपये तक हैं, तो षीघ्र विवाद निबटारे में मदद मिलेगी। इन अदालतों में न्याय देने के लिये तैनात व्यक्तियों को देष के उपभोक्ताओं की दषा के प्रति संवेदनषील बनाने की जभी जरूरत है। साथ ही मुआवजे की राषि को अधिक उचित एवं उदार ढंग से आकलन करने की जरूरत है जो उपभोक्ता संरक्षण कानून की भावना के अनुरूप है। चूंकि सुनवाई के स्थगन तथा अति तकनीकी प्रक्रियाओं के कारण भी मामलों के निबटारे में देर होती है, इसलिये उपभोक्ता अदालतों के फैसलों की पूरी छानबीन की जरूरत है ताकि उपभोक्ता संरक्षण कानून के प्रावधानों के उल्लंघन वाली उपभोक्ता न्याय प्रणाली से छुटकारा मिल सके। ऐसी छानबीन से संदिग्ध चरित्र वाले अदालतों के अध्यक्षों एवं सदस्यों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी। इस बात को दूसरी ढंग से कहें तो एक नियमित, स्वतंत्र आॅडिट अंकेक्षण व्यवस्था की जरूरत है ताकि उन सदस्यों एवं अध्यक्षों को हटाया जा सके जो उपभोक्ता संरक्षण कानून पर अक्षरषः तथा उसकी भावना के अनुरूप अमल नहीं करते।

महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक की ओर से कराए गए एक ताजा सर्वेक्षण की रपट बताती है कि भारत में उपभोक्ता अधिकारों की हालत बहुत दयनीय है। रपट में न सिर्फ स्वयंसेवी संगठनों की कोषिषों को नाकाफी बताया गया है, बल्कि सर्वेक्षण के नतीजे सरकार को भी कठघरे में खड़ा करते हैं। इसके मुताबिक करीब अठहŸार फीसदी उपभोक्ता मानते हैं कि सरकार उनके हितों की रक्षा के लिए कुछ नहीं कर रही है और उन्हें मुनाफाखोर ताकतों के भरोसे छोड़ दिया गया है। एक तरफ घरेलू उपयोग की चीजों की कीमतों में बराबर बढ़ोतरी हो रही है और दूसरी ओर मानमाने दाम वसूलने की षिकायतों की अनेदखी का सिलसिला बदस्तूर जारी है। उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण अभीतक पर्याप्त महत्व नहीं पा सका है। इस संबंध में कानून लागू होने के करीब बीस साल बाद भी तीन चैथाई से ज्यादा ग्राहक पूरी तरह बाजार के रहमोकरम पर निर्भर हैं। संबंधित कानून के अमल में जहाँ सरकार या प्रषासन की लापरवाही दिखाई देती है, वहीं ज्यादातर उपभोक्ता भी अपने अधिकारों के प्रति उदासीन हैं। जागरुकता का आलम यह है कि करीब बयासी फीसदी लोग इस कानून और अपने हक के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। ज्यादातर लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि उपभोक्ता अदालतों में अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए किसी वकील की जरुरत नहीं है और इसके लिए सिर्फ षिकायत-पत्र काफी है। सरकारी स्तर पर हालत यह है कि इस मामले पर निगरानी के लिए बनाए गए विभाग के पास अभीतक ऐसी कोई खास योजना नहीं है जिससे ग्राहकों की जागरुकता और सषक्तिकरण आदि के लिए मुहैया कराए गए कल्याण-कोष का ठीक से इस्तेमाल हो सके। संबंधित मंत्रालय भी कोई ऐसा तंत्र विकसित नहीं कर सका है जिससे समुचित तरीके से लोगों तक इसका लाभ पहुँचे। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपभोक्ता अधिकारों के मामले में पिछले कुछ सालों में सक्रियता बढ़ी है। मगर यह अब भी बहुत कम है। ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक अठारह फीसदी से भी कम लोग धोखाधड़ी के खिलाफ आवाज उठाते या उपभोक्ता अदालतों में षिकायत कर पाते हैं। इस हालत में सुधार के लिए न तो केन्द्र के पास कोई सुचिंतित नीति है और न ही उपभोक्ता संरक्षण परिषदें कायदे से अपनी जिम्मेदारी निभा रही हैं। लोगों में जागरुकता के अभाव और सरकारी तंत्र की निष्क्रियता के कारण उपभोक्ता आंदोलन काफी कमजोर हालत में है। इस स्थिति को बदलना जरुरी है ताकि बाजार और खरीदार के बीच एक ईमानदार और पारदर्षी रिष्ता बन सके।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

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