Tuesday, December 7, 2010

दिनांक 04 अक्टूबर, 2010 को दलित समन्वय बिहार, पटना के तत्वावधान में ‘‘दलित मुद्दे पर जन घोषणा-पत्र विमोचन’’ के अवसर पर डा॰ जगन्नाथ मिश्र, पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री का सम्बोधन।


मानवाधिकार आयोग ने स्वतंत्रता की आधी षताब्दी बीतने के बाद भी अनुसूचित जातियों पर हो रहे अत्याचारों और इन्हें रोकने के लिए बने कानूनों के हस्र के बारे में एक रिपोर्ट हाल में ही जारी की है। ‘‘रिपोर्ट आॅन प्रिवेंषन आॅफ एट्रोसिटीज अगेंस्ट षेडयूल्ड कास्टस’’ नामक इस दस्तावेज से आजाद भारत में भी अनुसूचित जातियों की जारी दुर्गति साफतौर पर उभरकर आती है। इस बात का विषेष महत्व है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी एक प्रमुख संवैधानिक संस्था की रिपोर्ट हमारे सभ्य समाज व लोकतांत्रिक राज की असलियत से हमें रू-ब-रू कराती है। इस रिपोर्ट की प्रस्तावना में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीष और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति ए॰एस॰ आनन्द कहते हैं- ‘संविधान में पर्याप्त प्रावधानों और अन्य कानूनों के बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि सामाजिक अन्याय का सिलसिला और अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य कमजोर तबकों का षोषण जारी है। भारत द्वारा अपने को एक गणतंत्र घोषित करने की आधी सदी से अधिक षताब्दी बीतने के बाद भी सामान्यतः तमाम अनुसूचित जातियों के लोगों एवं खासकर दलितों को जिस अपमान से गुजरना पड़ता है, वह एक षर्मनाक बात है।’ रिपोर्ट में इस ‘षर्म की बात’ के कारणों की षिनाख्त की कोषिष की गयी है। इसके फलस्वरूप समाज, प्रषासन एवं षासन सब कठघरे में खड़े दिखायी देते हैं।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की यह रिपोर्ट आंकड़ों के आधार पर पूरे देष में दलितों की प्रताड़ना एवं पीड़ा को व्यापकता एवं गहराई से प्रस्तुत करती है। इसमें बताया गया है कि दलितों के नागरिक अधिकारों की रक्षा और उनके विरुद्ध अत्याचारों को रोकने के लिए बने कानूनों के तहत सबसे अधिक मामले बिहार एवं उŸार प्रदेष में दर्ज हुए हैं। इसकी बुनियादी वजह यह है कि दूसरे राज्यों की तुलना में बिहार एवं उŸार प्रदेष में अनुसूचित जातियों की आबादी कहीं ज्यादा है। बिहार एवं उत्तर प्रदेष के अलावा राजस्थान, मध्य प्रदेष, गुजरात, आंध्र प्रदेष और तमिलनाडु ऐसे अन्य राज्य हैं, जहाॅं अनुसूचित जातियों पर अधिक जुल्म हुए हैं। इस रिपोर्ट की असली ताकत इन अत्याचारों के पीछे के कारणों की पहचान के प्रयास में निहित है। इसमें साफतौर पर रेखांकित किया गया है कि हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था से उपजी सोच इसकी एक प्रमुख वजह है। दूसरी बात यह है कि ग्रामीण इलाकों में भूमि से जुड़े मामले दलितों पर अत्याचार का एक बड़ा कारण हैं। भूमि सुधारों की विफलता से अनुसूचित जातियों को वह आर्थिक सुधार नहीं मिल सका, जो उन्हें सामाजिक संरचना की काट में मददगार बनाता।

रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि सुधारों को लागू करने के कुछ मामलों एवं कुछ राज्यों को छोड़कर कहीं सफलता नहीं दिखाई पड़ती। भूमि सुधारों का क्रियान्वयन राजनीतिक इच्छाषक्ति एवं नौकरषाहों में प्रतिबद्धता की कमी, कानूनों में मौजूद खामियों, भूस्वामियों की दांव-पेंच की व्यापक क्षमता, गरीबों के बीच संगठन के अभाव और अदालतों की अत्यधिक दखलंदाजी की भेंट चढ़ गया। वितरण के लिए बहुत कम अतिरिक्त जमीन भूस्वामियों से प्राप्त की जा सकी। इस निराषाजनक स्थिति में यह षायद ही संभव था कि भूमि सुधारों का कुछ ठोस लाभ अनुसूचित जातियों को मिल पाये। इस तरह दलितों को उनकी कमजोर स्थिति एवं बेचारगी से उबारने के एक भी कारगर उपाय को नहीं बढ़ाया जा सका। इस स्थिति ने दलितों को कई जगहों पर एक नयी तरह की राजनीतिक पहलकदमी से जुड़ने को मजबूर कर दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ ऐसे भी अवसर आते हैं, जब कोई दलित व्यक्ति किसी राज्य के मुख्यमंत्री की गद्दी तक जा पहुँचता है, पर वह भी सामाजिक संरचना एवं राजनीतिक समीकरण के दबाव में अपने समुदाय के हित में कोई मजबूत व असरदार निर्णय नहीं ले पाता। ऐसे माहौल में कई बार दलित जातियाॅं अपने सम्मान एवं भूमि सुधारों की खातिर रैडिकल वामपंथी आन्दोलनों से भी जुड़ी है। सामंती तत्वों के लिए यह स्थिति बर्दाष्त से बाहर साबित हुई है। इसके जबाव में इनकी निजी सेनाओं ने आगजनी, बलात्कार एवं सामूहिक कत्लेआम जैसे बर्वर जुल्म दलितों पर ढाये हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘अनुसूचित जाति की औरतों पर अत्याचारों की सबसे कड़ी मार पड़ती है। अनुसूचित जाति की औरतों के साथ हुए बलात्कार की गिनती बढ़ती गयी है। सामन्ती जाति से संबंधित निजी सेनाओं द्वारा बलात्कार का इस्तेमाल पूरे समुदाय का मनोबल तोड़ने के लिए एक हथियार के रूप में होता है।’ दरअसल, बलात्कार एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल होता है और औरतें प्रभुत्वषाली जातियों के गुस्से का निषाना बन जाती हैं। औरतों को छोटे-मोटे झगड़ों के मामले में भी लोगों द्वारा नंगा करके घुमाने जैसी कई अन्य तरह की जिल्लतों से गुजरना पड़ता है। औरतों को धर्म के नाम पर देवदासी जैसी सबसे घृणित वेष्यावृत्ति प्रथा में ढकेल दिया जाता है, जिसमें अधिकतर अछूत जातियों की 6 से 8 वर्ष की लड़कियाॅं भगवान को समर्पित कर दी जाती हैं। ये षादी नहीं कर सकती हैं और मंदिर के पुजारी व अन्य प्रभुत्व वाली जाति के लोग इनके साथ बलात्कार करते हैं। अन्ततः इन लड़कियों को षहरी चकलाघरों में बेच दिया जाता है।

रिपोर्ट बताती है कि निजी सेनाओं द्वारा या अन्य रूप से ढाये गये जुल्मों में राज्य प्रषासन अनुसूचित जातियों के बदले अत्याचारियों के पक्ष में खड़ा नजर आता है। इसका कारण है नौकरषाही सहित सारी राज्य मषीनरी एवं सामाजिक संरचना में व्याप्त पक्षपात। ऐसा लगता है कि पर्याप्त संवैधानिक प्रावधान, लोकतांत्रिक प्रक्रिया, विकास, जागृति एवं षिक्षा उदारचेता नागर समाज सृजित करने में सफल नहीं हो सके। दुखद तथ्य यह भी है कि इस तथाकथित सभ्य समाज की नयी पीढ़ी भी वर्णवाद सोच से उबर नहीं पायी है। रिपोर्ट में इन बातों पर गंभीरता एवं विस्तार से चर्चा की गयी है। कहा गया है कि इन स्थितियों में राजनीतिक स्तर पर भी ईमानदारी की कमी है और अनुसूचित जातियों की स्थिति के प्रति एक गहरी उदासीनता है। ऐसी हालत में यह समझना कठिन नहीं है कि दलितों पर जुल्म ढानेवाले कैसे बच निकलते हैं और कानून धरा का धरा रह जाता है।

बहरहाल दलितों, आदिवासियों के प्रति गहरी संवेदनषीलता के लिए चर्चित अवकाष प्राप्त आइ॰ए॰एस॰ अधिकारी के॰बी॰ सक्सेना द्वारा तैयार की गयी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की यह रिपोर्ट सरकारी भाषा की उलझन से परे दो टूक षब्दों में बातों को सामने रखती है और अनुसूचित जातियों के पक्ष में बने कानूनों के बेअसर रहने के कारणों की ओर इषारा करती है। विभिन्न अनुसूचित जाति संगठनों और मानवाधिकार संस्थानों द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट कानून लागू करनेवाले तंत्र-पुलिस, प्रषासन और न्यायपालिका को बेनकाब करती है।

कुल मिलाकर रिपोर्ट के तथ्यों एवं विष्लेषणों से स्पष्ट होता है कि सदियों से आर्थिक और सामाजिक रूप से हाषिये पर जी रहे दलितों के प्रति समाज के प्रभुत्वषाली वर्गो के नजरिया, लोकतंत्र, समता और न्याय आदि के तमाम ढोल-बजाए जाने के बावजूद स्थिति में बदलाव नहीं आया दलितों के मामले में क्या अगड़ा, क्या पिछड़ा सब के सब एक हैं। आज भी असल प्रष्न यही है कि दलित लोग मनुष्य हैं या नहीं? तथाकथित भूमंडलीकरण के इस दौर में यह पूछना कितना ही दारूण क्यों न हो, पर इसी आईने में हम अपने तथाकथित महान देष की असली सूरत देख सकते हैं।

देष के कोने-कोने में दलित आज भी भीषण पीड़ा और प्रताड़ना की जिन्दगीे झेल रहे हैं। दलित तबका इस विकास में षिरकत का महज स्वप्न भी देखने की जुर्रत करे, तो उसे बेइंतहां जुल्म के चक्के और तेजी से रौंदने लगते हैं, पर किसी राष्ट्र-राज्य को एक लोकतंत्र के रूप में यदि बने रहना और बढ़ना है, तो इस भीषण सामाजिक, आर्थिक गैर-बराबरी और अन्याय से निजात पाना ही होगा। मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट इस दिषा में अनेक सिफारिषें भी पेष करती है। सारांषतः अनुसूचित जातियों को जारी त्रासदी से मुक्त कराने के लिए उनके संरक्षण के लिए बने विभिन्न कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने और दोषियों को दंड देने के साथ-साथ सामाजिक संरचना एवं सोच में व्यापक परिवर्तन की भी जरूरत है। कहना न होगा कि इसमें राज्य, समाज और स्वयं अनुसूचित जातियों की अपनी-अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है।

उपर बताए गए तथ्यों के आधार पर इन वर्गों के कल्याण के लिए निम्नलिखित उपाय तत्परता से कार्यान्वित किए जाएं:-(1) राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के प्रतिवेदन के अनुसार इस समय देष में सरकारी सेवाओं में दलितों के आरक्षण कोटा का 10 लाख पदों की रिक्तियाॅं हैं। तत्कालीन राजग सरकार ने संविधान में संषोधन कर अनुच्छेद 16 (4) में दलितों के लिये सरकारी सेवाओं में आरक्षण के बकाये रिक्तियों की पूत्र्ति के लिए 50 प्रतिषत की सीमा को षिथिल किया था। अतः केन्द्र सरकार दलितों के बकाये आरक्षित पदों पर नियुक्ति के लिए राष्ट्र व्यापी अभियान चलावे, (2) अनुसूचित जातियों और जनजातियों के साथ होनेवाले भेदभावों के लिए जिम्मेदार समाज के सबल एवं सामंती लोगों के अलावा इसमें लिप्त सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की पहचान कराके उनपर कानूनी कार्रवाई की जाए, (3) वैसे क्षेत्रों में चैकसी बढ़ा दी जाए जहाॅं दलित उत्पीड़न की ज्यादा घटनाएं होती हैं। सभी अधिकारियों को प्रभावित किया जाय कि वे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, षोषित कृषक मजदूर और अत्यंत गरीब लोगों के साथ पूरी हमदर्दी रखकर कार्य करें और अभियान चलाकर विभिन्न तबकों में व्यापक रूप से प्रचलित षोषण को दूर करें, (4) राज्य के अधिकारियों के संबंध में वार्षिक गोपनीय अभ्युक्ति के लिए कुछ नये स्तम्भ चलाये जाएं और यह व्यवस्था केन्द्र के अधिकारियों के लिए भी की जाए। स्तम्भ इस प्रकार हो- (क) अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रति दृष्टिकोण, (ख) सामाजिक न्याय के प्रति संवेदनषीलता, (ग) अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को न्याय दिलाने तथा उनपर हो रहे अत्याचार को रोकने के संबंध में षीघ्र कार्रवाई करने की क्षमता, (घ) अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का विकास करने में सफलता और (च) महिला एवं कमजोर वर्ग पर अत्याचार, सामाजिक जुल्म और अन्याय रोकने के लिए कारगर उपाय करने की क्षमता, (5) महिलाओं के प्रति बढ़ रही हिंसा एवं प्रताड़ना का सबसे मुख्य कारण दोषियों को उचित सजा नहीं मिल पाना है अतः इस भयावह समस्या से निपटने और दोषियों को उनके कुकृत्यों के लिए त्वरित सजा दिलाने के उद्देष्य से विषेष अदालतों का गठन किया जाए। इन विषेष अदालतों में मुकदमों की सुनवाई महिला न्यायाधीषों और अभियोजकों द्वारा की जाए। इस नवीन प्रयास से निःसंदेह अधिक से अधिक पीड़ित महिलाएं अपने साथ हुए अपराध के विषय में खुलकर बोलने की हिम्मत जुटा पाएंगी, (6) हाथ से मैला ढुलाने की प्रथा बहुत ही सामाजिक बुराई है जिसे बिल्कुल समाप्त किया जाए, (7) दलितों और आदिवासियों के उत्थान के सवाल को कुछ दलित नेता दलित एवं आदिवासी बनाम अन्य के रूप में पेष करते हैं जिसके चलते वांछित सफलता नहीं मिलती है अतः उसे एक राष्ट्रीय समस्या के रूप में प्रस्तुत किया जाए, (8) अनुसूचित जातियों-जनजातियों की उपेक्षा आरक्षण के मामले में जो की जा रही है उसे दूर करके उन्हें समाज में आदरणीय स्थान दिलाया जाए, (9) इसके के लिए संविधान के भाग 4 (क) में निर्धारित नागरिकों के मूल कर्तव्य को बड़े पैमाने पर प्रचारित किया जाए। इसके लिए सार्वजनिक चर्चा चलायी जाए, (10) दलितों, अत्यंत पिछड़ों और आदिवासियों के लिए बजट में उपबंधित राषि का लाभ उन्हें प्राप्त कराया जाए। जबतक दलित एवं आदिवासी नहीं जगेंगे या उन्हें भयमुक्त नहीं किया जाएगा तबतक स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता है, (11) सरकार के पास उपलब्ध अधिषेष भूमि का वितरण अविलंब किया जाए। भूमि सुधार के कार्यान्वयन में राजनीतिक इच्छाषक्ति एवं नौकरषाहों द्वारा प्रतिबद्धता दिखाई जाए और भूस्वामियों की दाव-पेंच की क्षमता घटायी जाए, (12) दलितों एवं आदिवासियों की जमीन पर उनके वास्तविक हकदारों को कब्जा दिलाया जाए। पिछले सालों में हजारों दलितों और आदिवासियों को जमीन, जंगल और जल सहित तमाम स्रोतों से विस्थापित किये जाने का जो सिलसिला जारी है उसे रोका जाए, (13) विभिन्न परियोजनाओं के कारण या अन्य रूप से बेदखल हुए दलितों एवं आदिवासियों को जमीन, जंगल और जल संबंधी सुविधाएॅं उपलब्ध कराकर उन्हें पुनर्वासित किया जाए, (14) भूमि विवाद, भूमि हदबंदी एवं सरकारी जमीन के बटवारे से उत्पन्न विवादों के समाधान के लिए प्रत्येक जिला में एक अभिकरण की स्थापना की जाए, (15) विभिन्न न्यायालयों में लंबित हदबंदी कानून से संबंधित मामलों का षीघ्र निष्पादन कराने के लिए संविधान के अनुच्छेद 323 बी0 के अंतर्गत विषेष भूमि प्राधिकरण की स्थापना की जाए, (16) बटाईदारों का हक सुनिष्चित करने या उन्हें सरकारी संरक्षण देने की दिषा में कार्रवाई के अभाव को देखते हुए बटाईदारी विवाद से उत्पन्न हिंसा का माहौल बदला जाए और एक व्यापक अभियान चलाकर बटाईदारों का हक सुनिष्चित किया जाए, (17) पिछले वर्षों में हजारों भूमिहीनों को भू-हदबंदी के तहत मिली जमीन, भूदान की जमीन अथवा सरकारी जमीन से भूधारियों द्वारा बेदखल किए जाने को रोका जाए और उसे अधिनियम के अंतर्गत संज्ञेय अपराध घोषित करते हुए बेदखल करने वालों पर अधिनियम के तहत तुरंत कार्रवाई की जाए, (18) वनों और वनोत्पादों पर आदिवासियों का हक पुनः स्थापित किया जाए, (19) राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में मजदूरी संबंधी वास्तविक स्थिति को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार ठोस ढंग से उपाय करे कि मजदूरों, खासकर कृषि मजदूरों को कानून के अनुसार न्यनूतम मजदूरी से कम मजदूरी न चुकायी जाए, (20) मजदूरों को वर्ष भर रोजगार के वैकल्पिक अवसर मिले तथा उन्हें उचित मजदूरी पाने की सौदा करने की क्षमता हो इसके लिए राज्य सरकार की ओर से उपाय किए जाएं। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम का कार्यान्वयन सही रूप में हो इसके लिए समुचित प्रषासनिक व्यवस्था की जाए और उसके लिए अधिकारियों को जिम्मेवार बनाया जाए,। (21) जिला मजिस्ट्रेटों और पुलिस अधीक्षकों को निदेष दिया जाए कि वे भूमि वितरण, न्यूनतम मजदूरी और अनुसूचित जाति एवं जन जातियों पर सामंती दृष्टिकोण रखने वाले लोगों द्वारा की जा रही हिंसात्मक कार्रवाईयों को दबाने के लिए पूर्ण रूप से वे जिम्मेवार होंगे, (22) दलितों एवं आदिवासियों को प्रतिस्पर्धा में षामिल करने के लिए उनमें पर्याप्त योग्यता और कुषलता विकसित की जाए। इसके लिए उच्च षिक्षा, षोध एवं कोंचिग की सुविधा सुलभ करायी जाए, (23) दलितों और आदिवासियों के बीच षिक्षा, सरल, सुलभ एवं सर्वव्यापी बनाकर उनकी पूरी आबादी को षिक्षित बनाया जाए। इस दिषा में सर्वषिक्षा अभियान को मुस्तैदी से संचालित किया जाए और पर्याप्त धनराषि दी जाए, (24) दलित और आदिवासी आर्थिक दृष्टि से बेहद पिछड़े हुए हैं। उनके आर्थिक सषक्तिकरण के लिए जनजाति उपयोजना, अंगीभूति योजना, आत्म नियोजन एवं गरीबी उन्नमूलन स्कीम में पर्याप्त धन का आबंटन किया जाए, (25) गरीबी एवं विकासविहीनता की समाप्ति के लिए लद्यु, मध्य एवं वृहद उद्योगों की स्थापना के लिए प्रत्यक्ष विदेषी पूॅंजी निवेष इन वर्गों के लिए अलग से की जाए। जिससे उदारीकरण एवं आर्थिक सुधार के अन्तर्गत यह समूह लाभान्वित हो सके।

भारतीय संविधान एक समतावादी समाज के लिए प्रतिबद्ध है। यह सरकार को प्रचलित विषमताओं के निराकरण हेतु विभिन्न उपायों से सक्षम बनाता है। इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय तरीका ‘‘सकारात्मक पक्षपात’’ है। सकारात्मक पक्षपात का अर्थ होता है सामाजिक तथा आर्थिक रुप से कमजोर और वंचित वर्गों को षिक्षा तथा रोजगार के क्षेत्र में विषेषाधिकार देना। ‘‘सकारात्मक पक्षपात’’ के पीछे मंषा स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक वर्षों में समाज के वंचित वर्गों को दूसरों के बराबर लाने की थी। इसका जोर षिक्षा, रोजगार तथा स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने के लिए उनके रास्ते के रोड़ों को हटाना था। ऐसे प्रावधानों की चर्चा संविधान सभा में हुई और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा कुछ विषेष वर्गों को सकारात्मक पक्षपात की सुविधा दी गई। संयुक्त राष्ट्र की विष्व सामाजिक स्थिति रिपोर्ट ने 2010 केन्द्र एवं राज्य सरकारों के दलितों एवं आदिवासी की कल्याणकारी योजनाओं के उनके तक पहुँचाने का उजागर किया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में दलित और विषेषकर दलित परिवार की महिलाएं संविधान के बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने सभी सरकारों एवं सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की पोल खोल दी है, जो दलित एवं आदिवासी कल्याण के लिए हजारों करोड़ खर्च के दावे करते रहे हैं। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों की योजनाओं का बहुत बड़ा हिस्सा उन तक पहुँच नहीं पाता, जो इसके हकदार हैं जबकि भारतीय संविधान ने दलितों एवं आदिवासी को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए अनेक प्रावधान किये हैं।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

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