Tuesday, December 7, 2010

दिनांक 19 नवम्बर, 2010 कें चेतना समिति कें तत्वावधान मे आयोजित सन्तावनम त्रिदिवसीय विद्यापति-स्मृति-पर्व समारोहक अवसर पर डा॰ जगन्नाथ मिश्रक सम्बोधन।
विद्यापति मिथिलांचलक विशिष्ट लोक गीतक विधासभ मे सेहो रचना कयलनि अथवा लोक गीतक संसार मे अपना के स्थापित कए एकटा सांस्कृतिक परंपराक निर्माण कयलनि। ओ अपना युगक आभिजात्य संस्कृतिक परंपरा पोषण कयलनि आर लोक संस्कृतिक कें ‘देसिला वयना’क माध्यमे उत्कर्ष प्रदान कयलनि। अर्था लोक गीत कें नागर प्रतिष्ठा प्राप्त भेल। संस्कृतिक प्रति संवेदन शून्यताक स्थिति मे लोक गीतक धरतीक उत्कर्ष प्रेरणास्पद मानल जाइछ।
विद्यापति प्रतिरोध तथा संघर्षक भाषाक जन्मदाता छलाह। मैथिली मे गीतरचना करैत काल ओ अपन मातृभाषा-प्रेम स्वतंत्र रूपें प्रकट कऽ सकैत छलाह। मुदा से ओ नहि कयलनि। ओ सक्कय वाणीक विरोध मे मैथिली कें काव्य-भाषा बनौलनि। विद्यापतिक अभीष्ट छलनि समाजक सुजन वर्ग सँ सम्वाद स्थापित करब। एहि वर्गक लोक पढ़ि नहि सकैत छल, मुदा गाबि सकैत छल। सरस-सरल भाषा मे लिखल छोट-छोट गीत जन-सामान्य कें बेसी रूचिकर भेलैक। गीतक भाव ओकरा भीतर घसलैक। ओ ओकर स्वाद चिखलक। प्रभुदित भेल। समरसताक यैह तत्व विद्यापतिक गीत कें लोकप्रिय बना देलक। ओ कंठहार बनि गेलाह।

विद्यापतिक विश्वासक आधार यैह टा रहल होयतनि जे ओ जे लिखैत छथि से मिथिलाक संस्कार लिखैत छथि, मुनष्यक स्वभाव लिखैत छथि, युगक यथार्थ लिखैत छथि। जे कहियो लुप्त भेनिहार नहि छैक। यैह परंपरा थिकैक जे कहियो नष्ट नहि भऽ सकैत छेक। एहि परंपराक चेतना कें जे स्वर देत, से कहियो मेटा नहि सकैत अछि। विद्यापति एखन धरि नहि मेटयला अछि, आगुओ नहि मेटयताह तँ एहि कारणें जे ओ मिथिलाक परंपरागत चेतनाकें स्वर देने छथि।

विद्यापति अद्भुत प्रतिभाशाली आ ‘अपूर्व’चतुर छलाह जे अपन दृष्टि आ मूल्य कें साहित्य मे मूर्Ÿिाकृत करैत काल एहन विषय आ एहन फाॅर्म चुनलनि,जे स्वतः स्वाभाविक रूप सं जजशिप ‘बुद्धिजीवि’ लोकनिक हाथ सँ बहरा क’ आम जनताक हाथ मे चलि गेलैक। समस्त प्रकारक विरोधी मूल्य आ मर्यादाक सŸाासीन रहलाक अछैत, छओ सए बर्खक अंधकार कें चीरि क’ आइ विद्यापित हमरा लोकनि धरि पहुँचि सकलाह, ई जे घटना थिक से प्रगतिविरोधी शक्ति पर जनताक विजय केर अद्भुत उदाहरण थिक।

राधाजी जे अपन अनुभव अपना सखी कें सुनओलथिन्ह, तेहन रहस्यपूर्ण अनुभव संसार मे ककरहु प्रसंग कोनहु सांसारिक व्यक्ति कें नहि भेटतन्हि आओर कोनहु गीत-सेवी कें भागवतक वेणु-गीतक परंपरा मे बढ़ए पड़तन्हि। विद्यापतिक अनेक पद राधा-माधवक स्कुट कीर्Ÿान सँ भरल अछि, किन्तु प्रस्तुत पद मे जखन राधा वा कृष्णक नामोल्लेख नहि अछि तँ कृष्णावतारक लीला सभ सँ ऊपर ऊठि ई मानव पड़त जे ई रहस्यवादी कविता अछि आओर कवि निबद्ध स्त्री पात्र छथि ‘जीवात्मा’ आओर ओहि पात्रक प्रीतिक आलम्बन छथिन्ह ‘परमात्मा’।

आइ फेर मिथिलाक लोक एकटा सांस्कृतिक चैबटिया पर बौक जकां ठाढ़ अछि। एकैसम शताब्दीक नाम चाकर बाट पर चलबा लेल सभ अपन-अपन सनेस ओरिया रहल अछि। एहू बाट मे हमर पाथेय रहत विद्यापतिक रचना। थाकल-ठेहिआएल रहब, कान वैह शाश्वत ध्वनि अकानत- ‘‘घन घन घनन घुघुरू कत बाजए’’ प्रतिकूल परिस्थिति मे निराशा गछाड़ि लेत तखन अखियासब-हन हन कर तुआ काता।

बंगालक माटि पर विद्यापतिक पदक एतेक व्यापक अनुसरण भेल अछि जे एहन कोनो कवि नहि छथि जिनका काव्य मे कोनो ने कोनो रूपें विद्यापतिक प्रभाव नहि पड़ल हो। असंख्य वैष्णव कवि कें केओ स्मरण नहि रखलक। मुख्यतः विद्यापति आ चण्डीदास बंगालक हृदय पर अधिकार केने छथि। एहि मे सं विद्यापतिक पद छनद झंकृत हेबाक कारणे स्मरणीय सेहो अछि। अर्थात् एहिठाम श्रुति स्मृतिक सहायक अछि। ई बात अनस्वीकार्य जे चण्डीदासक प्रभाव मनक अंतरांगन मे अछि जे तरेतर प्रभाव विस्तार करैत अछि आ प्रदर्शन मे गांभीर्य आनि दैत अछि। किन्तु, बहिरांगन मे विद्यापतिएक प्रभाव अधिक अछि। बंगालक माटि मे विद्यापतिक अनुगामिये अधिक उच्चरित छथि।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

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