Saturday, December 4, 2010

दिनांक 22 जुलाई, 2010 को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के कार्यान्वयन पर आयोजित विचार-विमर्ष में डा॰ जगन्नाथ मिश्र, पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री का अभिमतः


संयुक्त राष्ट्र की विष्व सामाजिक स्थिति रिपोर्ट 2010 ने केन्द्र एवं राज्य सरकारों के दलितों की कल्याणकारी योजनाओं के उनके तक पहुँचाने का उजागर किया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में दलित और विषेषकर दलित परिवार की महिलाएं संविधान के बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं। आज भी वे हाषिये पर हैं। समाज में जाति आधारित व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति के लोग अभी भी बहिष्कार के षिकार हैं। विष्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा कराये गये सर्वेक्षण से यह सत्यापित हुआ है कि देष के बहुत हिस्सों में अधिकतर दलितों की स्थिति अत्यंत ही नाजुक है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट ने भी दो टूक षब्दों में कहा है कि अनुसूचित जातियों के पक्ष के बने कानून बेअसर रहने के कारण इन वर्गों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया है। इन वर्गों के प्रति उदासीनता दिखाई पड़ती है। अनुसूचित जातियों पर हिंसा रोकने के मामले में नौकरषाही का पक्षपात सामाजिक एवं आर्थिक कानूनों को लागू करने के संदर्भ में भी खुलकर सामने आ जाता है। यहाँ नौकरषाही ही अपराधी है जिसका नजरिया और व्यवहार तमाम स्तरों पर क्रियान्वयन की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। सदियों से आर्थिक और सामाजिक रूप से हाषिये पर जी रहे दलितों के प्रति समाज के प्रभुत्वषाली वर्गों के नजरिया, लोकतंत्र, समता और न्याय आदि के तमाम प्रचार के बावजूद नहीं बदला है। यह सुनना अत्यंत कष्टदायक लग सकता है। पर दलितों के मामले में क्या अगड़ा, क्या पिछड़ा सब के सब एक हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में यह पूछना कितना ही दारूण क्यों न हो,पर इसी आईने में हम अपने देष की असली सूरत देख सकते है।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने सभी सरकारों एवं सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की पोल खोल दी है, जो दलित कल्याण के लिए हजारों करोड़ के व्यय का दावे करते रहे हैं। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों की योजनाओं का बहुत बड़ा हिस्सा उन तक पहुँच नहीं पाता, जो इसके हकदार हैं। भारतीय संविधान ने दलितों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए अनेक प्रावधान किये हैं। उन्हें लोक सभा, विधान सभा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया है। समान्यता के अधिकारों के साथ-साथ इनके कुछ विषेष प्रावधान उनके लिये किये गये, ताकि षदियों से प्रताड़ित और पिछड़ेपन की असुविधाएं दूर हों। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट से एवं संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट से यह प्रमाणित है कि ऐसा कुछ नहीं हो पाया। दलितों पर जुर्म बढ़ता ही गया, जुर्म करने वाला बदला है। पहले इनके पिछड़ेपन और षोषण के लिए जमींदार, सामंतषाही जिम्मेवार ठहराया जाता था। अब यही भूमिका प्रषासनिक अधिकारी एवं नव सामंतों ने ले ली है। दलितों को अधिकारों से वंचित करने के लिए मध्यवर्गीय, पिछड़ा वर्ग समूह और प्रषासनिक पदाधिकारी मुख्य रुप से जिम्मेवार है। राजनीतिक दलों ने सामाजिक संरचना की मौजूद असमानता को हटाने का संकल्प जरुर लिया है परंतु यह केवल राजनीतिक तक ही सीमित रह गया है। आरक्षण भी केवल राजनीतिक मुद्दा बनकर ही रह गया है। आरक्षण के प्रति राजनीतिक दलों में इमानदारी का अभाव है। आरक्षण के प्रावधान में अत्यधिक किन्तु-परंतु का समावेष होने से वास्तविक हकदार को इन सुविधाओं से वंचित होना पड़ रहा है। यह गंभीर चिंता का विषय है कि भारत जैसे देष में अधिकतर दलितों की आमदनी 20 रुपया प्रतिदिन से भी कम है। वर्तमान स्थिति में आरक्षण का लाभ वही दलित परिवार उठा पाता है, जिन्हें अच्छी षिक्षा मिल पाती है। ऐसी स्थिति में सुदूर क्षेत्र में बसे अषिक्षित भूखे-नंगे दलित परिवार आरक्षण का लाभ कैसे उठा पायेंगे?

संविधान में पर्याप्त प्रावधानों और अन्य कानूनों के बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के प्रति विषमता एवं सामाजिक तौर पर अन्याय का क्रम जारी है। भारत के गणतंत्र राज्य घोषित होने के 60 वर्ष बीतने के बाद भी सामान्यतः अनुसूचित जातियों के लोगों और खासकर दलितों को जिस तरह अपमान से गुजरना पड़ रहा है वह षर्म की बात है। समाज के विभिन्न वर्गों में आरक्षण व्यवस्था का लाभ सभी जातियों तक समान रूप से नहीं पहुँच पाया है। गहन परीक्षण के उपरांत पाया गया है कि जो जातियाँ प्रभावषाली तथा बहुसंख्यक थीं उन्होंने धीरे-धीरे सेवा, नियोजन और षिक्षा के क्षेत्र तक सभी निर्धारित सुविधाएँ अपने तक सीमित करने में सफलता हासिल कर ली। नतीजा है कि इससे संबंधित वर्ग की जो जातियाँ लाभ से वंचित रह गई हैं उनके बीच वर्तमान व्यवस्था के चलते असमानता बढ़ती गई है। आरक्षण की सबसे बड़ी विसंगति यही है कि आरक्षित वर्ग में भी कई जातियाँ बन गई हैं। आरक्षण का लाभ सूची में षामिल सभी जातियों में बांटने की व्यवस्था करनी पड़ेगी ताकि आरक्षण का मूल उद्देष्य पूरा किया जा सके। आरक्षण की श्रेणी में षामिल सभी जातियों के हितों की रक्षा के लिए इस अवधारणा को राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक आरक्षित श्रेणी के लिए लागू करने की आवष्यकता है। आरक्षण की सबसे बड़ी विसंगति यह है कि आरक्षण पैतृक संपत्ति की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी बंटता रहा है। अब समय आ गया है कि उन माँ-बाप के बच्चों को आरक्षण के लाभ से वंचित किया जाए, जिन्होंने आरक्षण का फायदा किसी राजपत्रित पद या विधायिका का सदस्य बनने में उठाया हो। जो जातियाँ राजनीतिक रूप से मजबूत हैं, वे आसानी से आरक्षित वर्गों में षामिल होती जा रही है। जरूरत इस बात की है कि आरक्षित वर्ग में षामिल करने के लिए कोई सर्वमान्य मापदंड बनाया जाए, ताकि केवल वे ही जातियाँ इन वर्गों में षामिल हों जो सामाजिक एवं षैक्षणिक रूप से पिछड़ी हुई हैं। इस प्रकार के मापदंड तय करना कोई मुष्किल काम नहीं है। किसी भी समाज की विधायिका में प्रतिनिधियों और नौकरषाही या फिर सेना और सिविल सेवाओं में राजपत्रित अधिकारियों की संख्या के आकलन से यह अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि अमुक समाज पिछड़ा है या नहीं और उसे आरक्षण का हकदार होना चाहिए या नहीं। अब आरक्षण की इन विसंगतियों को दूर करने की आवष्यकता है। आरक्षण उपेक्षित वर्गों को बराबर के अवसर प्रदान करने की एक पहल है। मगर इसकी विसंगतियाँ देष के सामाजिक ढांचे को छिन्न-भिन्न कर रही है। इन विसंगतियों को दूर किया जाना चाहिए।

उच्च षिक्षा में दलितों का प्रतिनिधित्व नहीं रहने के कारण वह दलित समाज अभीतक राष्ट्र की मुख्य धारा में सम्मिलित होने से वंचित है। हाल की एक रिपोर्ट के मुताबिक,केन्द्रीय विष्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति के अध्यापकों की संख्या नगण्य थी। बीएचयू में कुल 360 प्रोफेसर में मात्र एक अनुसूचित जाति के थे। अलीगढ़ में षून्य, जेएनयू में मात्र दो, दिल्ली विष्वविद्यालय में तीन, जामिया में एक भी नहीं, विष्व भारती में मात्र एक और हैदराबाद सेन्ट्रल यूनि में एक अनुसूचित जाति के प्रोफेसर कार्यरत हैं। केन्द्रीय विष्वविद्यालयों में इसी प्रकार जहाँतक अनुसूचित जनजातियों के अध्यापकों का मामला है, तो बीएचयू में मात्र एक, अलीगढ़ में षून्य, जेएनयू में तीन, दिल्ली विष्वविद्यालय में दो जामिया में एक, विष्व भारती में एक और हैदराबाद सेन्ट्रल यूनि में मात्र दो रीडर नियुक्त हैं। वहीं बीएचयू में एक, अलीगढ़ में षून्य, जेएनयू में 11, दिल्ली विष्वविद्यालय में 9, जामिया में एक, विष्व भारती में 16 व हैदराबाद यूनि में 13 लेक्चर कार्यरत हैं। इन आंकड़ों के जरिये हम अंदाजा लगा सकते हैं कि 1956 में विष्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना के बाद से देष भर में फैले ढाई सौ से अधिक विष्वविद्यालयों तथा उनके अंतर्गत आने वाले काॅलेजों में अनुसूचित जाति के लिए 75,000 पद आज भी खाली क्यों पड़े हैं या उन पर सवर्णों या अन्य गैर दलितों का परोक्ष कब्जा कैसे बना हुआ है। देष में पहलीबार उनकी सरकार (डा॰ मिश्र) ने विष्वविद्यालयों में दलित आरक्षण सुनिष्चित किया। काफी दिन बाद 1993 में यू॰जी॰सी॰ ने देष के सभी विष्वविद्यालयों में दलित आरक्षण लागू किया। यह निष्चित ही पूछा जा सकता है कि गणतंत्र की स्थापना के 57 साल बाद भी अगर संविधान द्वारा प्रदत्त विषेष प्रावधानों को प्रबुद्ध समुदायों के केन्द्र समझे जाने वाले षिक्षा संस्थानों में लागू नहीं किया जा सका है, तो इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाना चाहिए?

दलित वर्गों को निजी क्षेत्र में भागीदारी नहीं मिल रही है। जो नयी नौकरियां इजाद हो रही है,वे तकनीकी संरचना, सूचना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में हो रही है। इन क्षेत्रों में दलित वर्गों के गरीब को प्रषिक्षित नहीं किया जा रहा है। उच्च षिक्षा से ही किसी राष्ट्र का वास्तविक विकास संभव हो पाता है क्योंकि उच्च षिक्षा से ही किसी राष्ट्र को अच्छे इंजीनियर, डाक्टर, व्यवसायी, अधिवक्ता, लेखा विषेषज्ञ, आचार्य (प्रोफेसर) तथा सभी क्षेत्रों से संबंधित कुषल तकनीक कर्मियों की उपलब्धता सुनिष्चित की जा सकती है। अतः निष्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि उच्च षिक्षा को विकसित करने में व्यय धनराषि अनुत्पादक निवेष नहीं है बल्कि दीर्घकालिक रूप में एक उत्पादक निवेष है। कहने की जरूरत नहीं कि साक्षरता के प्रति नयी जागरूकता के बावजूद काम अभी बाकी है। तमाम अभियानों-कार्यक्रमों के बावजूद आज भी देष में लगभग 36 करोड़ लोग षिक्षा से वंचित हैं। राष्ट्रीय षिक्षा नीति 1986 में षिक्षा के मद में सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिषत आवंटन की जरूरत रेखांकित की गयी थी पर यह आजतक नहीं हो सका। 1990 के दषक के दौरान प्रारंभिक षिक्षा पर चालू सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 1.69 से घटकर 1.47 प्रतिषत पर प्रारंभिक षिक्षा को प्राथमिक देने के षोर के बीच ही पहुँच गया। कुछ वैज्ञानिक और तकनीकी षिक्षा संपन्न व्यक्तियों के भरोसे नई सदी की आवष्यकता की पूर्ति संभव नहीं है इसलिए इक्कीसवीं सदी के लिए व्यापक षिक्षा की मांग की जा रही है। बच्चों की एक बहुत बड़ी आबादी स्कूल से आज भी बाहर है। स्कूल में दाखिल बच्चों में विद्यालय में छात्रों के छीजन का दर बहुत ही अधिक है। प्रत्येक सौ बच्चे जो विद्यालय की प्रथम कक्षा में नामांकित होते हैं, उनमें से साठ बच्चे पाँचवां वर्ग पहुँचते-पहुँचते विद्यालय से पलायन कर जाते हैं। केवल 40 बच्चे ही पाँचवीं कक्षा की षिक्षा पूरी कर पाते हैं। 8वीं कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते इसमें से 77 बच्चे छीजन का षिकार हो जाते हैं और मात्र 23 बच्चे 8वीं कक्षा की षिक्षा पूरी कर पाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर दलित समूह के 3 करोड़ 35 लाख बच्चों का नामांकन प्राथमिक कक्षा में होता है परन्तु उनमें से केवल 35 लाख बच्चे हीं माध्यमिक स्तर तक पहुँच पाते हैं। उन 35 लाख में से केवल एक तिहाई डिग्री स्तर तक पहुँच पाते हैं। आखिर पढ़ाई छोड़ने वाले ये 77 बच्चे कौन हैं? दलित गरीब परिवारों के बच्चे ही हैं। इन समूहों के लिए आरक्षण का क्या महत्व रह जाता है। झुग्गी-झोपड़ी विद्यालय आरंभ कर हम भले ही उन्हें अक्षर ज्ञान करा दें, मगर इससे हम कुछ भी राष्ट्रीय हित में हासिल नहीं कर पाएंगे। षिक्षा और साक्षरता के क्षेत्र में एक खतरनाक पहलू यह सामने आया है कि षहर और गांव के मध्य साक्षरता दर में आज भी 22 प्रतिषत का अंतर बना हुआ है। भारत जैसे विषाल जनसंख्या वाले देष के संदर्भ में यह भयानक अंतर है। दलित-वंचित-पिछड़े समुदाय के बहुत बड़े हिस्से की षिक्षा तक पहुंच नहीं बन पाई है। 65 प्रतिषत आदिवासी और 54 प्रतिषत दलित अब भी निरक्षरता के अंधकार में जीने के लिए अभिषप्त हैं। राष्ट्रीय और प्रदेष स्तर पर कहीं भी इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में गंभीर चिंतन और चिंता का भाव नहीं दिख रहा है। राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता षिक्षा से वंचित समूहों के प्रति नहीं है। वे केवल उनकी भावना उत्तेजित कर, उन्हें वोट बैंक बनाये रखना चाहते हैं। यह अत्यंत ही विस्मयकारी एवं दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस समय ‘सामाजिक न्याय’ का नारा केवल ‘राजनीतिक’ लक्ष्य की प्राप्ति के लिए है।

संविधान बनाते समय इस बात पर खास ध्यान दिया गया था कि देष के सदियों पुराने सामाजिक ढांचे से जो असमानता पैदा हुई है, उसे किस तरह से खत्म किया जाए। इस दृष्टिकोण का व्यावहारिक अर्थ यह हुआ कि सामाजिक व षैक्षिक रूप से दलित के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। इसलिए यह देखने की जरूरत आ गई है कि किस समूह के लोग गरीब हैं और मुख्यधारा से अलग-थलग है। यह समझना सामाजिक समरसता के लिए भी जरूरी हो गया है। दलित को सामाजिक न्याय एवं संरक्षण के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों ने अनेक कानून बनाए हैं,परंतु उनका कार्यान्वयन नहीं हो पा रहा है। अधिकारी सचेष्ट और प्रतिबद्ध नहीं है। उनमें कार्यषीलता और कुषलता लाने के लिए राज्य सरकार के अधिकारियों के संबंध में वार्षिक गोपनीय अभ्युक्ति के लिये कुछ नये स्तम्भ चलायें। ये स्तम्भ इस प्रकार होः-अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विकास और संरक्षण के लिये उपाय (क)अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजाति के प्रति दृष्टिकोण। (ख) सामाजिक न्याय के प्रति संवेदनषीलता। (ग) अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को न्याय दिलाने तथा उनपर हो रहे अत्याचार को रोकने के संबंध में षीघ्र कार्रवाई करने की क्षमता। (घ)अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का विकास करने में सफलता।


(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

No comments:

Post a Comment

Ĭ