Friday, December 3, 2010

जातीय आधारित जनगणना - संविधान की अवहेलना                

केन्द्र सरकार ने विभिन्न राजनीतिक दलों के दबाव में जातीय आधार पर जनगणना को लगभग स्वीकार कर स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक ऐसा अध्याय जोड़ने की तैयारी षुरू कर दी है, जिसका दूरगामी परिणाम देष के लिए घातक हो सकता है। यह सही है कि जाति हमारे समाज की सच्चाई है और देष के विकास में अबतक की सबसे बड़ी बाधा भी। इस बात को डाॅ॰ अम्बेदकर से अधिक बेहतर और कौन जानता था? लेकिन फिर भी अम्बेदकर, नेहरू और पटेल आदि नेताओं ने जनगणना में जाति गणना को दूर ही रखा। हमारी स्वाधीनता के उन्नायक इस बात को भली-भांति समझते थे कि देष की एकता और अखण्डता को बनाए रखना है तो जाति के जिन्न को बोतल में बंद रखना ही बेहतर होगा, क्योंकि इससे जाति को वैधता मिलेगी, जातिवाद बढ़ेगा, जाति को एक वोट बैंक के रुप में इस्तेमाल किया जाएगा और एक जातिविहीन समाज की परिकल्पना खत्म हो जाएगी। मार्क गैलेंटर जैसे पष्चिमी समाजषास्त्रियों ने कहा है कि जातिगत गणना भारतीय राष्ट्र की अवधारणा और एकता को कमजोर करने की औपनिवेषिक साजिष थी। इस लिए हमारा संविधान समाज को टुकड़ों में बांटने और इसे सार्वजनिक करने की अनुमति नहीं प्रदान करता है। डाॅ॰ भीमराव अम्बेदकर ने संविधान सभा में कहा था कि भारत को तरक्की के रास्ते पर अग्रसर होना है और अपने लोकतंत्र की नींव को मजबूत रखना है, तो जातीय व्यवस्था को तोड़ना होगा। वह ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे, जहाँ मानवता ही जाति हो। बाबा साहब आरक्षण के भी खिलाफ थे। आरक्षण को मात्र 10 सालों के लिए ही अपनाने के पक्षधर थे। उनका मानना था कि जातिगत आरक्षण को बढ़ावा देने से लोकतंत्र कमजोर हो जायेगा। इन सभी खतरों को ताक पर रखकर सरकार जाति की गणना कराने पर अमादा है।

जाति जैसे जटिल, उलझे हुए और संवेदनषील घटक को जनगणना में षामिल कराने का दबाव स्पष्ट रुप से इंगित करता है कि अपने तात्कालिक लाभ के लिए हमारे नेता देष के दूरगामी हितों को ताक पर रख सकते हैं। जातीय जनगणना की पहली व्यावहारिक कठिनाई यही है कि जाति इतनी जटिल अवधारणा है, जो उम्र, लिंग, पेषा और यहांतक कि मजहब से भी अधिक व्यक्तिनिष्ठ है। अर्थात् एक ही व्यक्ति की कई जातीय पहचान हो सकती है। उदाहरण के लिए दक्षिण गुजरात में एक जाति है मतिय। इस जाति के लोग गांव के भीतर खुद को मतिय कहते हैं, तहसील स्तर पर कोली और राज्य स्तर पर क्षत्रिय। फिर, अलग-अलग राज्यों में पिछड़े होने के अलग मानदंड है। ओबीसी की अवधारणा भी स्पष्ट नहीं है। यह अन्य पिछड़ा वर्ग है न कि पिछड़ी जातियां। हालांकि इसमें जातीय समूहों को ही षामिल किया गया, लेकिन फिर सवाल उठता है कि सरकार ओबीसी का कालम बनाएगी या सिर्फ जाति का। ओबीसी बनाएगी तो उसमें भी एमबीसी या ईबीसी (अति पिछड़ा वर्ग) को अलग रखेगी या नहीं? यह भी कि किसी पिछड़ी जाति की गणना करते समय उनके क्रीमीलेयर तबके को कहां परिगणित करें, क्योंकि सरकारी योजनाओं या आरक्षण का लाभ तो उन्हें नहीं मिलना है। तीसरे, जनगणना कर्मी अधिकांषतः प्राइमरी स्कूल के षिक्षक या अन्य सरकारी बाबू होते हैं, जो जाति संबंधी इन विभिन्न जटिलताओं को समझने और उसे रिकार्ड करने के लिए न तो प्रषिक्षित होते हैं और न ही समर्थ। एक आषंका यह भी जताई जा रही है कि जिन जातियों के लोगों की संख्या अधिक होगी, राजनीतिक दल उन्हीं को पूछेंगे और कम संख्या वाली जातियां हाषिये पर आ जाएंगी। इसका जो सबसे खतरनाक प्रभाव होना है, वह है जाति की घोर राजनीति। हालांकि अभी ही राजनीति में जाति घुस चुकी है, लेकिन जनगणना के बाद जाति और राजनीति के मिश्रण का ऐसा घोल बन सकता है, जो देष के लिए षायद बहुत विस्फोटक हो। ऐसे संवेदनषील मुद्दे को सिर्फ राजनीतिज्ञ तय नहीं कर सकते। समाजषास्त्रियों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और नागरिक समाज में इस पर व्यापक बहस चलानी चाहिए।

केन्द्र सरकार जातिगत आधार पर इस बार जनगणना करबाने की घोषणा करके एक ऐसे चक्रव्यूह में फंस गई है जिससे निकल पाना बेहद मुष्किल होगा। इससे कई झमेले पैदा होंगे जिसके भारतीय राजनीति में बड़े खतरनाक एवं दूरगामी परिणाम होंगे। समाज विभाजित होगा और राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ जाएगी। इस तरह की मांग 2001 में भी उठायी गई थी मगर सरकार ने तब इसे ठुकरा दिया था। इस बार जनगणना के साथ-साथ राष्ट्रीय पापुलेषन रजिस्टर भी बनाया जा रहा है जिसके आधार पर हर नागरिक को स्थायी पहचान मिलेगी इसी के आधार पर पिछड़ा वर्ग अपने भावी राजनीतिक खेल की लम्बी योजनाएं बना रहा है। वैसे तो मंडल आयोग की सिफारिषों को लागू करने के बाद से देष की राजनीति की बागडोर सवर्ण जातियों के हाथ से निकलकर पिछड़ी जातियों के हाथों में जा ही चुकी है।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जाति व्यवस्था एक हकीकत है। इसके खिलाफ गत एक षताब्दी से अभियान चल रहा है। खास बात यह है कि वर्ण व्यवस्था और जातपात के खिलाफ ब्राह्मणों ने भी जोरदार आवाज उठायी। इस संदर्भ में राजा राम मोहन राय, षंकर देव, बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर, दयानंद के नाम का उल्लेख किया जा सकता है। दलितों को तो इसका विरोध करना ही था। खास बात यह है कि यदि उच्च जातियां जातिवाद से ग्रस्त हैं तो पिछड़ी जातियां भी इससे बची हुई नहीं हैं। पुलिस रिकार्ड के आंकड़े इस कड़वी सच्चाई का साक्षी हैं कि पिछड़ी दबंग जातियों के उत्पीड़न का षिकार दलित सबसे ज्यादा हुए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा कि दलित के अत्याचार में अगड़ा और पिछड़ा सभी एक जैसे हैं। इस संदर्भ में यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाने वाले दलित भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं। दलितों में भी कुछ जातियां स्वयं को उच्च मानती हैं और अन्य को हेय दृष्टि से देखती हैं। क्या जाटवों और वाल्मीकियों में विवाह के सबंध होते हैं?

जाति आधारित जनगणना संविधान निर्माता बाबा साहब डा॰ भीमराव अम्बेदकर एवं महान समाजवादी चिन्तक डा॰ राम मनोहर लोहिया द्वारा जाति प्रथा समाप्त करने जैसे संकल्प को बड़ा ही आघात पहुँचायेगी। संपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम और भारत निर्माण जातिविहीन सामाजिक संरचना पर आधारित रहा है। स्वतंत्रता सेनानियों एवं संविधान निर्माताओं के विचारों आदर्षों को जातीय वर्चस्व बढ़ाने की प्रवृŸिा से उनकी आत्मा को बड़ी ठेस पहुँचेगी। अबतक जाति आधारित जनगणना नहीं कराये जाने के कारणों में सबसे प्रमुख देष में विभेद बढ़ाने का है। भारत की संवैधानिक संरचना जात-पात से मुक्त समाज के रुप में हमेषा बनानी है। हालांकि जातिवाद व जाति विद्वेष खत्म होने के स्थान पर बढ़ता जा रहा है। राजनीतिज्ञों के निहित स्वार्थ लगातार बढ़ते आरक्षण और उससे उपजी समस्याओं से वैसे ही जातिगत टकराव देखने को मिलते हैं। ऐसे में यदि देष में अलग-अलग जातियों की जनसंख्या के आंकड़ों से पता चलना षुरू होगा तो इससे सामाजिक संरचना का ताना-बाना बिगड़ने का बड़ा खतरा है। राजनीतिक दल जातिगत गणना की मांग कर रहे हैं तो इसके पीछे उनके राजनीतिक स्वार्थ स्पष्ट हैं। जातियों के आंकड़े मालूम होने पर जाति विषेष के फायदे के काम अधिक संख्या में करेंगे। इससे वोट बैंक की राजनीति और भी बढ़ेगी तथा कई समस्याएं सामने आयेंगी। राजनीतिक परिदृष्य में बदलाव के चलते जाति आधारित जनगणना की मांग खतरनाक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमेषा सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति को छोड़कर अन्य जातियों को जनगणना में नहीं लिया गया था और उसके ठोस ऐतिहासिक एवं सामाजिक कारण थे। दूरगामी प्रभाव वाले इस निर्णय का भारतीय लोकतंत्र पर एवं संवैधानिक ढांचे पर व्यापक प्रभाव पड़ सकता है और सवंधिान की प्रस्तावना में उल्लिखित उद्देष्य एवं अनुच्छेद 14, 15, 16 तथा मूल अधिकार पर अनेक प्रकार के विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं। जिससे अंततः देष का बड़ा ही अहित होगाय साथ ही सिद्धांतविहीन, नीतिविहीन, आदर्षविहीन, राजनीति को प्रश्रय मिलेगा।

जातिवादी जनगणना से जातियों की राजनीति करने वालों का हित हो सकता है। लेकिन समाज को इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा। जाति आधारित जनगणना करने वाले निर्णय पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिये। यह निर्णय संविधान की मूल अवधारणा के विरुद्ध है। प्रष्न यह है कि जाति आधारित जनगणना से क्या अपेक्षा है? जातियों की राजनीति करने वालों के लिए इस जनगणना का महत्व हो सकता है परंतु मुल्क एवं समाज के लिए यह अहितकारी होगी। राष्ट्र निर्माताओं ने बहुत सोच समझकर समानता को बुनियादी मूल माना था। अंगे्रज ने धर्म के नाम पर मुल्क बंटबाने का काम किया अब जाति जनगणना से सामाजिक व्यवस्था को खंडित किया जा रहा है। जातिवाद के सही आंकड़े होने से सरकारी नीतियां निर्धारित करने और कमजोर समूह को प्राथमिकता देने का तर्क दिया जाता है। यह दलील निरर्थक है क्योंकि अभी सभी जनगणनाओं में दलित, आदिवासी एवं अल्पसंख्यकों के आंकड़े एकत्रित किये जाते रहे हैं किन्तु 63 वर्षों के बाद भी उनकी स्थिति में बदलाव नहीं आया है। जाति आधारित जनगणना संविधान के अनुरुप नहीं है। यह हैरानी की बात है कि कांगे्रस की राजनीति जाति आधारित नहीं रही है। उसकी नीति में यह परिवर्तन कैसे हो रहा है? मंडलवादी पार्टियां सरकार पर दबाव बनाकर ऐसा निर्णय केन्द्र सरकार से करा रही हैं। कांगे्रस निरंतर यह मानती रही है कि जाति जनगणना से जातिवादी राजनीति बढ़ेगी तथा जातिवादी विभाजन बढ़ेगा। कांगे्रस का पारंपरिक विचार है कि जाति एक सामाजिक संस्था है। जातीय जनगणना का निर्णय पण्डित नेहरू, सरदार पटेल, बाबा साहेब भीमराव अम्बेदकर, जयप्रकाश नारायणा, डा॰ राम मनोहर लोहिया, इन्दिरा गांधी की घोषित नीतियों के अनुरुप नहीं है न ही संविधान में इसकी व्याख्या की गई है। यदि कांगे्रस की नीति होती तो नेहरू, इन्दिरा जैसे नेताओं ने ऐसी जनगणना करायी होती। यह अत्यंत ही विस्मयकारी है कि मंडलवादी नेताओं के दबाव में कांगे्रस अपनी पारंपरिक नीतियों से अलग हो रही है।

केन्द्र सरकार जाति आधार पर जनगणना कराये जाने की औपचारिक घोषणा करती है, तो यह एकत्रित देष भावना के खिलाफ बात होगी। यह कदम भारतीय लोकतंत्र की मजबूत नींव को कमजोर कर सकता है। क्योंकि, इससे समाज में विभाजन का खतरा और बढ़ जायेगा। जाति पर आधारित जनगणना संविधान के नियमों कीे अवहेलना करती है। संविधान में कहा गया है कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था बराबरी के नियमों पर कार्य करेगा। इसमें यह भी कहा गया है कि देष में किसी भी स्थिति में जाति, सम्प्रदाय और नागरिकता के आधार पर व्यक्तियों और समाजों के बीच भेदभाव नहीं किया जायेगा। इस प्रकार से हमारा संविधान समाज केा दुकड़ों में बांटने और इसे सार्वजनिक करने की अनुमति नहीं प्रदान करता है। डाॅ॰ भीमराव अम्बेदकर ने भी जातिविहीन समाज का सपना देखा था। उस समय संविधान सभा में उन्होंने कहा था कि भारत को तरक्की के रास्ते पर अग्रसर होना है और अपने लोकतंत्र की नींव को मजबूत रखना है, तो जातीय व्यवस्था को तोड़ना होगा।

24 जून 2010  
डा॰ जगन्नाथ मिश्र

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