Saturday, December 4, 2010

बिहार विधान मण्डल की दो दिनों की घटना से संसदीय प्रणाली की मर्यादा पर आघात
लगभग छः दषक के प्रजातंत्र के बाद हम एक अजीब मोड़ पर खड़े है। लोकतंत्र में संसद और विधान मण्डल की अहमियत लगातार कम हो रही है। राजनीतिक दल और नेता का आम आदमी से रिष्ता लगातार कमजोर हो रही है। उसी संदर्भ में बिहार विधान मण्डल के इतिहास में मंगलवार एवं बुधवार को जैसी घटनाएं और आचरण हुए हैं वह बिहार के विधान मण्डल के इतिहास में एक कालाध्याय के रूप में स्मरण किया जाता रहेगा। यह निष्पक्ष और पूर्वाग्रह से मुक्त प्रेक्षक को जो बात सबसे अधिक विचलित करती है वह यह कि चाहे सत्तारूढ़ दल हों अथवा विपक्ष में बैठे दल उनका आचरण और राजनीतिक गुणा-भाग खुद को ही नुकसान पहुँचाने वाला हुआ है। यदि राजनीतिक दल अपने खुद के हितों की सही तरह देखभाल नहीं कर सकते तो उनसे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वे राज्य के हितों का ध्यान रखेंगे। राजनीतिक दल अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा काम किया है। आम आदमी का इससे बड़ा अपमान हुआ है। जनमत सर्वेक्षण की आवष्यकता है कि आम आदमी की इन घटनाओं के संबंध में क्या प्रतिक्रिया है। राजनीतिक दलों ने जिस तरह का आचरण किया है उससे यह साफ पता चलता है कि उन्हें जनता की नजरिए का अनुमान नहीं है। संसदीय लोकतंत्र में ऐसे अभद्र और हिंसात्मक आचरण के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। जब राजनीतिक दल सड़क की राजनीतिक को सदन में इस तरह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उचित ठहराते है तो वह जाने-अनजाने गैर लोकतांत्रिक माओवादी और आतंकवादी जैसे षक्ति का समर्थन करते हैं। उग्रवादी, नक्सलवादी और माओवादी संसदीय प्रणाली को निरर्थक साबित करना चाहते हैं। संसद एवं विधान मण्डल में ऐसे गैर उत्तरदायित्वपूर्ण आचरण से उनके विचारों का समर्थन होता है। भारत के महालेखाकार नियंत्रक के प्रतिवेदन पर विधान मण्डल में बहस होनी चाहिये थी जिससे स्थिति स्पष्ट की जा सकती थी। लेकिन बाद-विवाद नहीं कर अनावष्यक रूप से हंगामा करने से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। विधान मण्डल की घटना से यह प्रमाणित होता है कि उनका लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों में कोई भरोसा नहीं है। अगर ऐसा होता तो उनके लिए सदन में विचार पहला बिन्दु होता। लोकतांत्रिक ढांचे में विपक्ष का यही काम होता है कि वह सरकारी नीतियों की आलोचना जनता के सामने पेष करे। उसे सरकार के विरोध और उसे बेनकाब करने का जनादेष मिला होता है न की अभद्र और गैर लोकतांत्रिक आचरण करने का अधिकार उन्हें प्राप्त है।

संविधान की धारा 151(2) में वर्णित प्रावधान के अनुसार नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक अपना प्रतिवेदन राज्यपाल को समर्पित करते हैं तथा यह प्रतिवेदन विधायिका के समक्ष उपस्थापित किया जाता है। बिहार विधान सभा प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमावली के प्रावधान के अनुसार प्रतिवेदन लोक लेखा समिति के समक्ष उपस्थापित की जाती है। लोक लेखा समिति प्रतिवेदन के अध्ययन के पश्चात अपनी अनुषंसाएं विधान सभा अध्यक्ष को सौंपती है। प्रतिवेदन के विधायिका द्वारा स्वीकार कर लिए जाने के पश्चात ।ज्त् लोक लेखा समिति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार सरकारी लेखों की जांच के लिए एक स्पष्ट संवैधानिक एवं कानूनी प्रक्रिया है जिनमें रिपोर्ट विधायिका के समक्ष प्रस्तुत करने के पूर्व महामहिम राज्यपाल की सहमति ली जाती है एवं बाद में इसे च्।ब् के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन 14 जुलाई, 2009 को विधायिका के समक्ष प्रस्तुत किया गया था। यह प्रतिवेदन वर्तमान में विधायिका के समक्ष विचाराधीन है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 151(2) के तहत दिनांक 14.07.2009 को सदन के पटल पर उपस्थापित किया गया था। उक्त प्रतिवेदन को सदन द्वारा नियमावली के नियम-235 के तहत लोक लेखा समिति को सौंप दिया गया था। नियमावली के नियम-236 में यह स्पष्ट प्रावधान है कि राज्य में विनियोग लेखे एवं वित्त लेखे तथा उसपर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदनों पर सभा में विमर्ष तबतक न होगा जबतक कि नियम-239 के अधीन ऐसे लेखों और प्रतिवेदनों पर लोक लेखा समिति का प्रतिवेदन सभा में उपस्थापित नहीं कर दिया जाय। उक्त नियमावली में यह भी प्रावधान है कि लोक लेखा समिति का प्रतिवेदन उपस्थापित किये जाने के बाद लोक लेखा समिति के सभापति सदन में यह प्रस्ताव करते हैं कि राज्य के विनियोग लेखे, वित्त लेखे और उसके संबंध में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन पर दिये गये लोक लेखा समिति के प्रतिवेदन पर विचार किया जाय और इस प्रस्ताव के बाद ही सदन प्रतिवेदन पर विचार कर सकती है। बिहार विधान सभा की लोक लेखा समिति को उक्त प्रतिवेदन सौंपे जाने के बाद से अभीतक उसपर कोई प्रतिवेदन सदन में उपस्थापित नहीं हुआ है। यह अभी भी लोक लेखा समिति के विचाराधीन है।

महालेखाकार के प्रतिवेदन में विपत्र की चर्चा है, वस्तुतः बिना विपत्र कोषागारों से निकासी का मामला घपला नहीं है बल्कि खर्च किये पैसे (एससी बिल) के बदले समायोजन (डीसी बिल) नहीं जमा किया जाना है। फिर भी बिहार विधान सभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमावली के अंतर्गत नियम 105 के अंतर्गत विषेष परिस्थिति में इस अत्यंत लोक महत्व के विषय पर चर्चा ओर बहस करायी जा सकती है। विधान मण्डल को बाद-विवाद और चर्चा करने का अधिकार और दायित्व है। लोकतंत्र में राज्य के सबसे बड़े पंचायत को यह अधिकार है कि वह लोगों की भावना एवं जन समस्या को उजागर करे। संसदीय प्रणाली के अंतर्गत लोक लेखा समिति को वित्तीय प्रणाली की कमियों की चिन्हित कर उसके निराकरण के उपाय सुलझाने का दायित्व है। परंतु वर्तमान इस प्रतिवेदन पर विधान मण्डल के संसदीय कार्यों और वाद-विवाद को बाधित करना संसदीय प्रणाली को आघात पहुँचाने वाला है। ऐसे विधान मण्डल की कार्रवाई को इस प्रकार से बाधित करना उन षक्तियों को बल प्रदान करता है जो संसदीय लोकतंत्र में विष्वास नहीं करती है। अलोकतांत्रिक तरीकों से संसदीय तंत्र को आघात पहुँचायी जा रही है। विभिन्न राज्यों के महालेखाकार के प्रतिवेदनों से जानकारी मिलती कि अभी अनेक राज्यों में लम्बे समय से डीसी बिल नहीं जमा किया गया है। महाराष्ट्र में 1993 से 2009 तक 22 हजार करोड़, उत्तर प्रदेष में 2055 से 2008 तक 33 हजार करोड़, मध्य प्रदेष में 41 हजार करोड़, झारखण्ड में 2000 से अभी तक 6 हजार करोड़ रूपये का डीसी बिल नहीं जमा किया गया। यहां तक केन्द्र सरकार तक डीसी बिल को लेकर नियमित नहीं है। इन तथ्यों के आलोक में विधान मण्डल की दो दिनों की कार्रवाई बाधित करना विमस्यकारी है।

(डा॰ जगन्नाथ मिश्र)

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